Sunday, October 24, 2010

दिल्ली में कश्मीर आज़ादी के नारे- Aal iz well

दिल्ली में कश्मीर आज़ादी के नारे- Aal iz well

आपको थोडा अजीब लग सकता है, इस वक़्त जब पूरा देश आरएसएस की अजमेर धमाको और उसकी अन्य राष्ट्र विरोधी गतिविधियों के बारे में चर्चा कर रहा है तो मै करीब 5 -6 दिन पुराने काण्ड का अलाप क्यूँ कर रहा हूँ, पिछले दिनों कश्मीर के मुद्दे पर दिल्ली में एक सेमिनार करवाया गया जिसका विषय था- "आज़ादी: एक ही रास्ता", इस सेमिनार में कश्मीर के अलगाववादी नेता सैयद अली शाह गिलानी, माओवादियों के प्रति सहानुभूति रखने वाले तेलुगू कवि वरवर राव, लेखिका अरुंधति रॉय जैसे लोगों ने हिस्सा लिया, ये लोग कौन है और इनका अतीत कैसा रहा है ये हमसे छुपा नहीं है, इन लोगो का चयन वाकई शानदार है, न तो इनका विश्वास भारत में है और न ही भारतीयता में, ऐसे भारत की राजधानी में बैठ कर भारत विरोधी उवाच, धन्य है हिंदुस्तान और इसकी उदारता आखिरकार भारतीय संविधान देश के सभी नागरिकों को बोलने की आज़ादी का अधिकार देता है.

बहुत सारे लोग बुश को एक राक्षश के रूप में मानते है , हो सकता है की वो हो भी, पर सच ये भी है की अमेरिका अब ज्यादा सुरक्षित है, सलमान खान से जब ये पूछा गया की अमेरिका में एयरपोर्ट पर इतनी चेकिंग होती है तो उन्हें बुरा नहीं लगता तो उन्होंने कहा की नहीं”, काश अपने यहाँ भी ऐसा होता कम से कम सुरक्षा की गारंटी तो मिलती, बुश ने जिस तरह स्पष्ट शब्दों में दुनिया से ये कहा (चेतावनी) था की या तो आप हमारे साथ है, या हमारे खिलाफ, उसने अमेरिका की मानसिकता को बताया था, बताया था की एक राष्ट्र अपनी सुरक्षा, एकता और अखंडता के लिए कितना ढृढ़ है, मुझे लगता है राष्ट्रीय एकता, अखंडता और नागरिक सुरक्षा के मामले में हम एक रीढविहीन देश है

खैर लौटते है पुरानी चर्चा पर, विचारों की स्वतंत्रता का महत्व है यह माना, ये भी माना की हमारे लोकतंत्र में हमें ये आज़ादी मिली है की हम सरकार और यहाँ तक की स्टेट के खिलाफ भी भावना और विचारो की अभिव्यक्ति कर सकते है, लेकिन देशद्रोहियों को देश की राजधानी में पाकिस्तान का प्रचार और भारत विरोधी नारे लगाने की की इजाजत देना केवल मूर्खता ही कही जायेगी। गिलानी और अरुंधती राय के जहरीले राष्ट्रीय बयानों पर न तो सरकार ने पहले भी कुछ किया था और अब भी ढुलमुल रवैया ही है , बिडम्बना यह थी कि इसी जगह प्रदर्शन कर रहे रूट्स इन कश्मीर, भारतीय जनता युवा मोर्चा के लडको को लाठियो से मार कर भगा दिया गया. हो सकता है की उनके विरोध प्रदर्शन का तरीका गलत हो, हो सकता नहीं माना की उनका तरीका गलत था, लेकिन अब आपको ये चुनना ही होगा की कोई बाहरी ताकतों का एजेंट आपको आकर आपकी जगह पर गाली दे और आपके अपने लड़के जब उसका विरोध करे तो आप किसके हितो की रक्षा करेंगे.... अफ़सोस की ज्यादातर मीडिया ने इस घटना पर विशेष ध्यान नहीं दिया

हकीकत ये है की गिलानी समेत इन तमाम लोगो ने घाटी को तालिबान के रंग में रंग दिया है, ध्यान रहे की ये रंग इस्लाम का रंग हरगिज़ नहीं है, ये रंग है सामंती तालिबानी इस्लाम का, कश्मीर के तालिबानीकरण ने वहां की पुरानी सूफी परम्परा को भी ध्वस्त कर दिया है। वहाबी मुस्लिम कट़टरवाद ने घाटी में हिन्दू मुस्लिम एक्य के तमाम पुलों को ही तोड़ दिया है। अगस्त में मै जम्मू में था, जो थोडा बहुत पता लगाया पाया या जितना मैंने देखा उसके पता चला की घाटी में हिन्दू महिलाओं का बाजार में बिन्दी लगाकर चलना असंभव हो गया है, हिन्दू पुरूष और महिलाएं अपनी पहचान छिपा कर चलना ज्यादा मुनासिब और सुरक्षित मानते हैं। श्रीनगर में पहले हजारो की संख्या में हिन्दू परिवार थे। आज वहां सिर्फ बीस-तीस परिवार ही बचे हैं। उन्हें भी निकल जाने के लिए पिछले साल धमकियां मिली थीं। जब स्थानीय कश्मीरी हिन्दू संगठनों के नेता पुलिस अधिकारियों से मिली तो उन्होंने उनकी मदद करने से कदम पीछे हटा लिए। एक वरिष्ठ अधिकारी ने उनसे कहा कि यदि आपको सच में हिफाजत चाहिए तो आप सैयद अली शाह गिलानी के पास जाएं। मजबूर होकर वे हिन्दू गिलानी के पास गये तो उन्हे हिफाजत मिली। इस प्रकार अलगाववादी नेता अपनी शर्तें सिख व हिन्दू परिवारों से भी मनवाने में कामयाब रहते हैं। पूरे कश्मीर में एक ज़माने में करीब डेढ़ लाख से अधिक रहने वाले सिख्खो में से बचे खुचे पच्चास हजार सिखों को इस्लाम कबूल करने वरना घाटी छोड़ने की धमकी मिली, ये धमकी उसी सिलसिले के तहत है जिसके अन्तर्गत पहले सात सौ से अधिक मन्दिर तोड़े गए , पांच लाख हिन्दुओं को निकाला गया , लद्दाख के बौद्धों को सताया और छितीसिंह पुरा जैसे सिख नरसंहार किए गए। दिल्ली में भी गिलानी के साथ स्टेज पर एक सरदार को बैठे देखा तो सोचा धन्य है "भय" और उसकी "सत्ता".

वैसे गिलानी एंड कंपनी की प्लानिंग शानदार है, इस वक़्त कश्मीर की जिंदगी में में पत्थरबाजी, आगजनी और तोड़फोड़ की घटनाएं आम बात है। नवजवानों में सुरक्षाबलों के खिलाफ ज़हर और आक्रामकता पैदा की जा रही है। जानबूझकर ऐसी स्थिति गिलानी एंड कंपनी बना रही है की सुरक्षाबलों को आत्मरक्षा के लिए गोली चलानी पड़े - वे पहले पानी की बौछार फेंकते हैं, फिर रबर की गोलियां चलाते हैं। रबर की गोली भी यदि नजदीक से लगती है तो जानलेवा साबित हो सकती है , ऐसे में कोई पत्थरबाज लड़का मारा जाता है तो उसकी प्रतिक्रिया में और हिंसा भड़कती है और इस प्रकार एक दुष्चक्र चल पड़ता है और चलती रहती है गिलानी एंड कंपनी की दूकान भी .

इसी कम्पनी में एक महिला भी है जिनके बारे में जम्मू-राजधानी के सफ़र में मुझे पता चला, इनका नाम हैअसिया अन्दराबी। यह मोहतरमा कश्मीर की आज़ादी के आंदोलन (?) की प्रमुख नेता मानी जाती हैं, एक कट्टरपंथी संगठन भी चलाती हैं जिसका नाम हैदुख्तरान-ए-मिल्लत” (धरती की बेटियाँ)। अधिकतर समय यह मोहतरमा अण्डरग्राउण्ड रहती हैं और परदे के पीछे से कश्मीर के पत्थर-फ़ेंकू गिरोह को नैतिक और आर्थिक समर्थन देती रहती हैं। मसला ये है की मैडम ने घाटी के बच्चो से और युवको से शिक्षा के बहिष्कार की अपील की है, यही नहीं स्कूल कालेज जाने वालो को बाकायदा रोकती भी है, न मानो तो रूकवाती भी है, एक बयान में असिया अन्दराबी ने कहा किकुछ ज़िंदगियाँ गँवाना, सम्पत्ति का नुकसान और बच्चों की पढ़ाई और समय की हानि तो स्वतन्त्रता-संग्राम का एक हिस्सा हैं, इसके लिये कश्मीर के लोगों को इतनी हायतौबा नहीं मचाना चाहियेआज़ादी के आंदोलन में हमें बड़ी से बड़ी कुर्बानी के लिये तैयार रहना चाहिये…”...क्या बात है........., आपको लग रहा होगा की कश्मीर की आज़ादी के लिये मैडम कितनी समर्पित नेता हैं.............लेकिन 30 अप्रैल 2010 को जम्मू-कश्मीर के उच्च न्यायालय में दाखिल दस्तावेजों के मुताबिक इस फ़ायरब्राण्ड नेत्रीअसिया अन्दराबी के सुपुत्र मोहम्मद बिन कासिम ने पढ़ाई के लिये मलेशिया जाने हेतु आवेदन किया है और उसेभारतीय पासपोर्टचाहियेचौंक गये, हैरान हो गये न आप? जी हाँ, भारत के विरोध में लगातार ज़हर उगलने वाली अंदराबी के बेटे कोभारतीय पासपोर्टचाहियेऔर वह भी किसलिये? बारहवीं के बाद उच्च अध्ययन हेतु। यानी कश्मीर में जो युवा और किशोर रोज़ाना पत्थर फ़ेंक-फ़ेंक कर, अपनी जान हथेली पर लेकर 200-300 रुपये रोज कमाते हैं, उन गलीज़ों में उनकाहोनहारशामिल नहीं होना चाहतान वह खुद चाहती है, कि कहीं वह सुरक्षा बालो के हाथो मारा न जाये। कैसा पाखण्ड भरा आज़ादी का आंदोलन है यह? एक तरफ़ तो कई महीनो कश्मीर के स्कूल-कॉलेज खुले नहीं हैं जिस कारण हजारों-लाखों युवा और किशोरो ने अपनी पढ़ाई का नुकसान झेला, इनके चक्कर में आकर बेचारे 200-300 रुपये के लिए पत्थर फ़ेंक रहे हैंऔर दूसरी तरफ़ यह मोहतरमा लोगों को भड़काकर, खुद के बेटे को विदेश भेजने की फ़िराक में हैं

इसी तरह के तमाम ड्रामो से भरी है ये गिलानी और इसकी कम्पनी..... नेशनल मीडिया में बैठे तमाम तत्वों को कश्मीर की कलह दिखती है पर लाखो की तादात में कश्मीर से विस्थापित हुए लोगो का दर्द कभी नहीं, आज विस्थापित जम्मू में जिस तरह रह रहे है- वो इन्हें कभी द्रवित नहीं करता.. दिल्ली में गिलानी और अरुंधती राय जैसे भारत विरोधी तत्वों की उपस्थिति और उनके जहर बुझे बयान यदि किसी दूसरे देश में हुए होते तो या तो सरकार कड़े से कड़ा कदम उठाती जिसमे जेल में डालना शायद सबसे सरल कदम होता, और अगर सरकार ऐसा न करती तो जनता में इतना गुस्सा उमड़ता कि सरकार पलट जाती, पर धन्य है हम, ……वैसे भी "आल इज वेल" हमारा नया नारा है, लेकिन ये सवाल आपके लिए ज़रूर है की आखिरकार गिलानी और अरुंधती के भारत विरोधी बयान क्या विचार स्वतंत्रता की श्रेणी में आते हैं , और क्या उन्हें इतनी सरलता के साथ स्वीकार किया जाना चाहिए था. खैर छोडिये, चलिए पता लगते है की ये साले संघी अब देश को कौन सा नुक्सान करने वाले है .अंत में Aaal iz well , Aaal iz well, Aaal iz well, Aaal iz well

दिल्ली में कश्मीर आज़ादी के नारे- Aal iz well


Monday, October 4, 2010

अयोध्या पर फैसला- मुन्नू मियां और वो 24 घंटे

                 तमाम रूकावटो और दशको चले मुक़दमे के बाद अयोध्या पर फैसला 30 सितम्बर को आना तय हुआ। बरबस मुझे मुन्नू मियां याद आ गए। 30 सितम्बर सुबह 7 बजे से लेकर 1 अक्तूबर की सुबह 7 बजे तक का समय यानी वो 24 घंटे मै आज आपके साथ बाटूंगा। मुन्नू मियाँ इस फैसले से कतई नहीं जुड़े है, दूर दूर तक उनका इस विवाद से कोई लेना देना भी नहीं, पर फिर भी मुझे वो याद आये।

                 मेरे दादा जी सपरिवार बाराबंकी में रहते थे। वहां पर हमारा महलनुमा घर था। जितना बड़ा घर था, उससे बड़ा अहाता था पर दिक्कत ये थी की आहाते के सामने सड़क से जुडी जमीन का एक सीधा हिस्सा विवादित था। हमारे पडोसी मुन्नू मियाँ उस पर अपना दावा जताते थे, जबकि दादा जी का कहना था की ये ज़मीन उनकी है। इस विवाद में हमारा नुक्सान ये था कि अगर कोई सड़क से हमारे घर पर आये तो उसे एक गली जैसे रास्ते से आना पड़ेगा। घर की सारी खूबसूरती पर गृहण लग जाता था। मै तो उस वक़्त पैदा भी नहीं हुआ था, पर कहते है की मुन्नू मियाँ से बातचीत के ज़रिये मामला सुलझाने की कोशिश की गयी। फिर मुकदमेबाजी हुई, करीब 33 साल बीत गए, कुछ नहीं हुआ। विवादित होने की वजह से उस ज़मीन पर कुछ बना भी नहीं तो ज़मीन खाली ही पड़ी रही। एक हिसाब से उस पर कब्ज़ा हमारा ही था क्यूंकि कोई निर्माण न होने के कारण हम उसी से आते जाते थे। ख़ास बात ये थी कि मुन्नू मियां या उनके परिवार से कोई रोक टोक भी नहीं थी।

                लम्बे चले मुक़दमे के बावजूद मुझे याद ही नहीं कि  उनके परिवार से मेरे परिवार का कभी कोई झगडा हुआ हो। हो सकता है कि मुकदमे के वक़्त या उससे पहले हुआ हो लेकिन मेरी पैदाइश के बाद से कभी कोई विवाद नहीं रहा। मुन्नू मियाँ रोज़ सुबह बाहर वाले कमरे के दरवाजे की कुर्सी पर बैठते थे और सारे दिन वहीं बैठे रहते थे। मेरे पापा या चाचा जब भी वहां से गुजरते थे- उन्हें सलाम वाले कुम चचा कहते थे। बड़ी जल्दी मैंने भी ये सीख लिया और जब भी पापा या चाचा के साथ बाहर जाता उन्हें सलाम वाले कुम चचा कहता। वो भी हँसते हुए वाले कुम अस्सलाम कहते। एक दिन हम अकेले निकले, दरवाजे पर बैठे वो दिखे तो जोर से नारा लगाया "सलाम वाले कुम चचा" उन्होंने मुझे बुलाया और ठेठ अवधी अंदाज़ में कहा की "अबे चचा है हम तुम्हारे बाप के - तुम्हारे तो दादा हुए".. . पापा की जॉब के कारण हमने बाराबंकी छोड़ दिया और महीने-दो महीने में ही जा पाते थे। पर जब भी जाते कभी भी उनके परिवार से कोई विवाद नहीं सुना। हाँ ये बात ज़रूर थी कि उनकी और दादा जी की कभी बात भी नहीं हुई।

                 96 में दादा जी के निधन के बाद तो बाराबंकी से नाता टूट ही गया क्यूंकि वहां कोई बचा ही नहीं था, मै उसके बाद कभी भी वहां नहीं गया, खेत वैगेरह की ज़िम्मेदारी के लिए लोग रख दिए गए, दादा जी के निधन के करीब 10 महीने बाद पापा जी को मुन्नू मियाँ के घर से फोन आया की मुन्नू मियाँ मिलना चाहते है, पापा गए तो मुन्नू मियां ने कहा की उनके भी जाने का वक़्त आ गया है, क्या वो ज़मीन ले लेंगे ? पापा जी ने पूरे सम्मान के साथ इनकार कर दिया. उन्होंने बहुत जिद की कि वो ज़मीन उनके लिए बोझ है पर पापा जी ने कहा कि उस ज़मीन से हमारा कोई सरोकार नहीं है और न ही अब उसकी देखभाल करने वाल कोई है, एक ऐसी ज़मीन जिसके लिए करीब 33 साल मुकदमा चला, उसमे दोनों पक्षों कि कोई दिलचस्पी नहीं थी. इस मामले को सांप्रदायिक रंग भी देने कि कोशिश कि गयी लेकिन वो कामयाब नहीं हुई. मुझे पता नहीं कि अयोध्या विवाद के बारे में बात करते समय मै इस बारे में क्यूँ चर्चा कर रहा हूँ, पढने वालो को शायद अजीब भी लगे पर इसका ज़िक्र अनायास ही निकल आया

               खैर 30 सितम्बर को सुबह शिफ्ट में स्टार न्यूज़ एसाइनमेंट पर शिवम् गुप्ता, मो तारिक और हम थे। फैसला दोपहर 3.30 के आसपास आना था जो बढ़ कर 4 बजे हो गया। इलाहाबाद न्यायालय की लखनऊ बेंच को फैसला सुनाना था। देश में शांति थी और एक ज़िम्मेदार न्यूज़ चैनल की ज़िम्मेदारी यही थी कि ये शांति बनी रहे। आशंका थी कि कहीं कुछ "अंडर करेंट" जैसा न हो। जगह जगह हमारे सम्वाददाता नज़र रखे हुए थे। जब इलाहाबाद उच्च न्यायालय के फैसले को सुप्रीम कोर्ट द्वारा लगभग एक हफ्ते के लिए टाल दिया गया, तब सभी पक्षों में बेचैनी साफ देखी जा सकती थी, क्योंकि सब चाहते थे कि फैसला सुना दिया जाए।

               हम पत्रकारों की भी अपनी अपनी आस्थाए होती है। धर्म और राजनीति को लेकर हमारा भी अपना एक विचार होता है लेकिन हमारे प्रयास यही थे कि हम हमारे काम हावी न होने पाए। जब विवादित ढांचा गिराया गया था तब मै शिशु मंदिर में था। बेहद अलग माहौल था। क्रांति के समकक्ष- आज वैसा नहीं था, लेकिन खामोश लहरे कब सुनामी में बदल जाए इसका डर था। लोगो की भारी दिलचस्पी थी। विकास भदौरिया अयोध्या का हाल बता रहे थे पर नज़र थी लखनऊ पर। पंकज झा, राजन सिंह और उमेश पाठक  पल पल की सूचना दे रहे थे। जम्मू से अजय बाचलू, चंडीगढ़ से जगविंदर पटियाल,  जयपुर से मनीष शर्मा, भोपाल से ब्रजेश भाई बैंगलोरे से आयशा और मुंबई से मयूर और अखिलेश सुरक्षा व्यवस्था के बारे में लगातार बता रहे थे। विगत कुछ समय में टीवी पत्रकारिता पर हल्केपन का आरोप लगता रहा है। माना जाता रहा है कि टीवी पत्रकार गैरजिम्मेदार हो गए है और गंभीर और ज़िम्मेदारी की पत्रकारिता अब केवल अखबारों में ही होती है। मै इन आरोपों को नहीं मानता और इस आरोप की धज्जियां उड़ाने का यही सही समय था, इसीलिए "तनाव" , "उल्लास" "हर्ष" "भय" "अगर" "मगर" "जश्न" आदि शब्दों से परहेज किया जा रहा था।

                    समय नज़दीक आता जा रहा था। धड़कने बढती जा रही थी। इसी बीच पंकज भाई ने खबर दी कि फैसले की कापी नेट पर आएगी और वहीँ से खबर पता चलेगी। साथ ही ये भी बताया कि फैसले पर कोई आधिकारिक ब्रीफिंग नहीं होगी। धडाधड वेब पेजेज़ खुल गए। रोचक बात ये थी कि  सरकार की तरफ से जारी वेब आईडी भी "आरजेबी.कॉम (रामजन्मभूमि.कॉम) थी, यानी कहीं न कहीं सरकार भी मान रही थी की वहां रामजन्म भूमि थी। राजन सिंह हाईकोर्ट के पास कलेक्ट्रेट परिसर से चैट दे रहे थे कि तभी वहां हलचल हुई। हिन्दू पक्ष की वकील रंजना वाजपई और उनके समर्थक मुस्कुराते हुए विक्ट्री का साइन दिखाते हुए आते दिखे। अंदाज़ा लगना शुरू हो गया कि क्या फैसला रहा होगा। इसी बीच उमेश पाठक के मेल पर जजमेंट की कापी भी आ गयी। न्यूज़ रूम में उत्सुकता अपने चरम पर थी। सारा न्यूज़ रूम एसाइनमेंट पर आ गया। मामला ऐसा था की हर कोई इससे जुड़ा हुआ महसूस कर रहा था मगर भावनाओ की सार्वजनिक अभिव्यक्ति से बच रहा था।

                       क्या कमाल का सयंम था। सिर्फ खबर- वो भी खबर की तरह। नागपुर से सरिता कौशिक का फोन आया कि शायद वहां कुछ गड़बड़ हुई है। खबर को रोका गया- ज़िम्मेदारी का तकाजा यही था। तमाम गेस्ट आये- सबसे चर्चा हुई, पर मजाल है की कुछ भी हलका चला जाये। बेहद उम्दा काम रहा और कमोवेश हर चैनल पर यही हाल था। इलाहाबाद हाई कोर्ट की लखनऊ बेंच ने स्वीकार किया कि अयोध्या में विवादास्पद स्थल भगवान राम का जन्म स्थान है और मुगल शासक बाबर द्वारा वहां विवादास्पद इमारत बनवाई गई थी। इलाहाबाद हाईकोर्ट के तीनों जजों ने एकमत फैसले में कहा कि विवादित स्थल पर रामलला की पूजा जारी रहेगी। विवादित स्थल को तीन हिस्सों में सुन्नी वक्फ बोर्ड, निर्मोही अखाड़ा और रामलला पक्ष को बराबर बांटा जाए। लेकिन तीनो ने रामलला की जन्भूमि को जन्मस्थान माना। इस फैसलों को काफी संतुलित माना गया। राजनीतिक दलों ने भी बड़ी संतुलित प्रतिक्रिया दी। कुल मिलकर बेहद उम्दा दिन रहा। गर्व हुआ की हम एक महान देश में है। जो भी हो, इलाहाबाद उच्च न्यायालय का फैसला अर्ध-विराम है, पूर्ण विराम नहीं। पूर्ण विराम तब आएगा जब सुप्रीम कोर्ट इस पर फैसला सुनाएगा। मुस्लिम सर्वोच्च अदालत में अपील करेंगे, जिसका उन्हें पूरा हक भी है।

रात को सोते वक़्त बड़ी उत्सुकता थी कि जिम्मेदार अखबार कैसे रिपोर्ट करते है।

  1. अमर उजाला लिखता है "रामलला विराजमान रहेंगे ", 
  2. दैनिक जागरण की भी पहली खबर "विराजमान रहेंगे रामलला", 
  3. दैनिक भास्कर को पढ़िए " भगवान् को मिली भूमि", 
  4. Times Of India- “2 parts to Hindus, 1 part to Muslims”, .. 

मै आगे कोई बहस बढ़ाना नहीं चाहता पर टीवी पत्रकारिता बेहद गरिमामय और ज़िम्मेदार मिशन है और हमने इसे एक बड़े दिन साबित भी किया। खैर जाते जाते मुलायम सिंह ने एक बार फिर भावनाओ को भड़काने की कोशिश की मगर उनकी बात नहीं बनी। मुलायम ने कहा की " इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने अपने फैसले में आस्था को कानून तथा सुबूतों से ऊपर रखा है और देश का मुसलमान इस निर्णय से खुद को ठगा सा महसूस कर रहा है" कौन किसे ठग रहा है साफ़ है....

खैर मजेदार हेड लाइन इकोनोमिक टाइम्स की थी – Land divided , India United. “.

अंत में- होइए वही जो राम रचि राखा

अयोध्या पर फैसला- मुन्नू मियां और वो 24 घंटे