Saturday, March 23, 2013

Movie Review: Aatma


एक लाइन में – “आत्मा” देखने की ज़हमत मत उठाइये, अगर डर का मज़ा लेने के लिए पैसे ही खर्च करने का मूड बना लिया है तो कुछ और कीजिये

हिट या फ्लॉप – सस्ते में बनी फिल्म है और देश की जनसँख्या ज्यादा, ऐसे में अपना पैसा तो निकाल ही लेगी

देखें या न देखें – अब रहने भी दीजिये

कहानी क्या है ?
बिपाशा (माया) अपनी बच्ची निया (डोयल) की सिंगल पैरेंट है और अचानक एक दिन उन्हें पता चलता है कि निया रोज अपने मर चुके पिता अभय (नवाजुद्दीन सिद्दकी) से बातें करती है। तमाम ट्विस्ट और टर्न के बाद बिपाशा को पता चलता है कि उसके पति की आत्मा उसकी बेटी को हासिल करने के मकसद से आयी है। माँ की ममता जग जाती है और फिर शुरू होती है जंग कि कौन अपनी बेटी को हासिल करता है।

एक्टिंग कैसी रही ?
बिपाशा बसु के खाते में हॉरर के नाम पर पहले से ही दो हिट फिल्में हैं। राज और राज 3 पर इसका मतलब ये नहीं है कि उन्होंने कोई बहुत ख़ास अभिनय कर दिया हो। ऐसी तमाम फिल्मो के लिए ज़्यादातर एक खास किस्म का ही एक्सप्रेशन चाहिए होता है और बाकी काम सिचुएशन और बैक ग्राउंड म्युज़िक करता है – ऐसे में बिपाशा और नवाज़ दोनों ने अपना काम ठीक ठाक ही किया है , हाँ बिपाशा का बार बार चिल्लाना काफी अखरता है। नवाज़ से बड़ी अपेक्षाए है पर ऐसी फिल्मे बताती है की हर एक्टर की एक सीमा होती है। यहाँ पर छह साल की बाल कलाकार डोयेल धवन का जिक्र ज़रूरी है और वो तारीफ की हक़दार भी है।

बाकी सब ?
याद कीजिये रामसे ब्रदर्स की भुतहा फिल्मे- गंदा मेकअप, उलझे बाल, साफ़ साफ़ नकली दिखने वाले सस्ते दांत और बेवजह का शोर, चीख-चिल्लाहट। 'आत्मा' इनसे अलग तो हैं लेकिन इसके बावजूद फिल्म आपको क्लिक नहीं करती। अभिनय के अलावा हॉरर फिल्मो के लिए सबसे ज्यादा ज़रूरी होता है बैकग्राउंड म्युज़िक और स्पेशल इफेक्ट्स- इस मामले में फिल्म बेहतर है मगर फिल्‍म का क्लाइमेक्स कमजोर और अधूरा सा है। शायद पार्ट 2 बनाने की जल्दी ही थी जो पार्ट 1 को बिगाड़ गयी। सुपर्ण वर्मा की कोशिश ठीक थी पर कमज़ोर कहानी पर उलझा क्लाइमेक्स फिल्म के खिलाफ जायेगा ।
  
आखिरी बात - आज कल फिल्म का ट्रेलर जितना दमदार होता है वह बात फिल्म में नजर नहीं आती है। आत्मा भी उसी किस्म की है

स्टार कास्ट : बिपाशा बसु, नवाजुद्दीन सिद्दीकी, डोयेल धवन
निर्देशक, लेखक, संवाद : सुपर्ण वर्मा
निर्माता : कुमार मंगत पाठक, अभिषेक पाठक

Saturday, March 16, 2013

Film Review - Mere Dad Ki Maruti “मेरे डैड की मारुती”


एक लाइन में - मजेदार है मेरे डैड की मारुतीकी सवारी

हिट या फ्लॉप - पिक्चर तो अच्छी है- हिट आप बनायेंगे

देखें या न देखें - देख सकते है

खोसला का घोसला ने एक नया ट्रेंड शुरू किया- मध्यमवर्गीय आम शहरी की कहानी और उस पर कामेडी की चाशनी से सराबोर फिल्म। मेरे डैड की मारुतिइसी किस्म की फिल्म है.

कहानी क्या है ?
कहानी चंडीगढ़ की है जिसमे तेज़ तर्रार लेकिन कंजूस बाप तेजिंदर (राम कपूर) अपने नालायक बेटे समीर (साकिब सलीम) की हरकतों से हमेशा परेशां रहता है। समीर एक लड़की जसलीन (रिया) पर फ़िदा है। जसलीन के साथ डेट पर जाने के लिए समीर अपने डैड की नई मारुति बिना बताये लेकर चला जाता है। मुसीबत तब शुरू होती है जब वो कार खो जाती है। तुर्रा ये कि कार भी दहेज़ में देने के लिए है। कहाँ गयी कार, कैसे मिलेगी, कब मिलेगी क्यूंकि घर में शादी के कुछ ही दिन बाकि है इसी सबको लपेटे हुए है मेरे डैड की मारुती

फिल्म में खास क्या है ?
पिछले कुछ वक़्त से यशराज फिल्म्स लगातार युवा दर्शकों को ध्यान में रख कर फिल्में बनाते रहे है। इस फिल्म में भी वही सारे मसाले है मसलन चंडीगढ़ में एक पंजाबी परिवार में शादी की माहौल, आज के दौर में बाप-बेटे का रिश्ता, प्यार और दोस्ती, पंजाबी म्यूजिक और इसी अंदाज़ में बोले गए डायलॉग। फैशन की जुबां में कहे तो ये सारी चीज़े आजकल इनहै और दर्शकों का भरपूर मनोरंजन करती हैं। मेरे डैड की मारुती भी इसी किस्म की फिल्म है। यह युवाओं की फिल्म है जो उन्ही की जुबां में बनी उन्ही की कहानी कहती है। 

एक्टिंग कैसी रही ?
हीरो हिरोइन को एक तरफ रखिये क्यूंकि बाज़ी मारी है राम कपूर ने। फिल्म में सबसे ज्यादा ताली उन्ही के हिस्से आयी है। हर वक्त बेटे से चिढ़े और डांटने वाले पिता के रुप में राम ने लाजवाब काम किया है। मुझसे फ्रांडशिप करोगेमें नजर आए साकिब सलीम इस फिल्म में लीड में है और उनका काम भी अच्छा है। राम कपूर और उनके साथ के सीन तो काफी गुदगुदाते है। फिल्म से डैब्यू करने वाली वीजे रिया चक्रवर्ती ओवरएक्टिंग की खासी शिकार नज़र आती है। बाकियों के हिस्से कुछ खास नहीं है, हाँ हीरो के दोस्त बने प्रबल पंजाबी भी जमे है।

बाकी सब
फिल्म के परिवेश के मुताबिक संवाद से लेकर गाने तक सब कुछ पंजाबी है। निर्देशक आशिमा छिब्बर की इस बात के लिए तारीफ की जानी चाहिए की उन्हें पता था की वो क्या दिखा रही है और उन्होंने उसे कायदे से दिखाया भी।  चूँकि माहौल भी शादी का है तो ऐसे में नाच-गाने बुरे भी नहीं लगते। मीका की आवाज़ में पंजाबियां दी बैटरी चार्ज रैंदी हैहिट हो ही चुका है।

आखिरी बात
ये फिल्म मनोरंजन का एक बढ़िया पैकेज है तो अगर इस वीकेंड आपके पास करने को कुछ खास नहीं है तो फैमिली के साथ मेरे डैड की मारुतीकी सवारी ज़रूर की जा सकती है    


Sunday, March 10, 2013

Movie Review - The Attacks of 26/11



फिल्म समीक्षा- द अटैक्स ऑफ 26/11  - रामगोपाल वर्मा 26/11 के उस आतंकी हमले जिसमें क्या मुंबई क्या भारत पूरी इंसानियत हिल गयी थी को फिल्म की शक्ल में सामने लाये है। साफ़ है की कहानी सबको पता है – यानि देखने की अब केवल दो वजहे बची- एक्टिंग और कहानी के साथ ट्रीटमेंट। रामू ने अपनी तरफ से कोशिश तो की लेकिन फिल्म और बेहतर हो सकती थी।

फ्लॉप या हिट- एवरेज

फिल्म में कौन कौन-
कलाकार- नाना पाटेकर, संजीव जायसवाल, अतुल कुलकर्णी
निर्देशक- राम गोपाल वर्मा
निर्माता- राम गोपाल वर्मा

कहानी क्या है –कहानी को लेकर रामू ने रिसर्च खूब की है और फिल्म में ये बात साफ़ नज़र आती भी है। फिल्म शुरू होती है मुंबई के तत्कालीन ज्वाइंट कमिश्नर राकेश मरिया बने नाना पाटेकर के एक कमीशन के सामने दिए जा रहे बयान से। अपने बयान में नाना पाटेकर उस रात के हमले और उसके मुकाबले में मुंबई पुलिस की कोशिशो को बयाँ करते है। किस तरह पाकिस्तानी आतंकी समुद्र के रास्ते मुंबई में दाखिल हुए और अलग अलग जगहों पर हमला कर दिया। क्या आम क्या ख़ास जो भी सामने मिला उसे भून कर रख दिया। जैसे जैसे फिल्म में घटनाएं होती है फिल्म आपमें और सिहरन पैदा करती है। बेगुनाहों का बहता खून आतंकियों को और हमलावर बनाता है। AK- 47 के जवाब में लाठिया लेकर दौड़ते मुंबई पुलिस के जवान दिखते है। सैकणो क़त्ल और उसके बाद कसाब की फांसी से फिल्म ख़त्म होती है।

अभिनय – फिल्म में दो ही अहम् किरदार है- राकेश मारिया बने नाना पाटेकर और कसाब बने संजीव जायसवाल। संजीव जायसवाल को फिल्म में लेने की एकलौती वजह मुझे यही समझ में आती है कि उनका चेहरा कसाब से मेल खाता है वरना वो कई दृश्यों में खासे ओवरएक्टिंग करते नज़र आये। एक सीन जिसमे कसाब से पूछताछ होती है में संजीव के पास अपना जौहर दिखाने की काफी गुंजाइश थी मगर वो उसी साइको की तरह नज़र आये जैसा की हम बी सी या डी ग्रेड बॉलीवुड की फिल्मो में पहले ही देख चुके है। नाना पाटेकर ने परिपक्व अभिनय दिखाया है मगर वो भी अपने को रिपीट करते नज़र आये। उम्र के पहले पड़ाव में वो जैसे चीखते हुए एक्टिंग करते थे और लगभग हर फिल्म में वैसे ही रहते थे- उम्र के इस पड़ाव में वो एक धीमे अंदाज़ में एक्टिंग करते है और लगभग हर फिल्म में वैसे ही रहते है। फिर भी उनका अभिनय काबिले तारीफ है और कई दृश्यों में वो खासे जंचे है। फिल्म के बाकी कलाकारों के हिस्से कोई ख़ास काम नहीं आया।

खासियत क्या है- बिना किसी शक के कहा जा सकता है की आतंकी हमले की सच्ची तस्वीरें रामगोपाल वर्मा ने दिखाई है जो भयावह भी है, क्रूर भी और बेहद मार्मिक भी। वैसे भी अगर आप ये फिल्म देखने की सोच रहे है तो आप खून खराबा देखने के लिए तैयार होंगे ही। आतंक और उसके खौफ को रामू ने बेहद रियल अंदाज़ में दिखाया है। मसलन एक सीन में आतंकी जिससे पानी मांग कर पीता है फिर उसी को गोली मार देता है, वहीं एक और सीन में मासूम बच्चे के सर पर गोली मार दी जाती है। ऐसे कई सारे सीन है जो आपके रौंगटे खड़े कर देंगे। राम गोपाल वर्मा कैमरे और साउंड के अनोखे प्रयोग करने में माहिर हैं। इस फिल्म में भी रामू का ये जलवा देखने को मिला है जो फिल्म को और प्रभावशाली बनाता है। यूँ भी आज कल रामू अपने कंटेंट से ज्यादा टेक्नीकल चीजों पर ध्यान देने में मशहूर है।

कमी कहाँ रह गयी- फिल्म की कहानी हम सब जानते है और मानते भी है कि उसमे छूट की गुंजाइश कम थी पर फिर भी रामू कोई नया फैक्ट, कोई नया प्रसंग या कोई नया किरदार सामने लाने में नाकाम साबित होते है। इसके अलावा फिल्म में केवल वीटी स्टेशन, ताज होटल, लियोपोल्ड कैफे और कामा हास्पिटल में हुई गोलीबारी को दिखाया गया है ऐसे में ओबराय होटल और कोलाबा के नरीमन हाउस पर हुए हमलों को लगता है रामू भूल ही गए। रामू ने कई सीन्स को बेहद लंबा खींच डाला है मसलन मुर्दाघर का एक सीन है जिसमे नाना और संजीव है- इसमें नाना का प्रवचन इसे बेहद लम्बा बना देता है । पता नहीं रामू कब समझेंगे की केवल कैमरा को अलग अलग तरीको से नचाने के अलावा और भी फिल्म के दूसरे पक्षों पर भी उतना ही ध्यान दिए जाने की जरुरत है।

देखे की न देखे - अगर आप रामू के काम और उनकी स्टाइल को समझते है और साथ में पसंद भी करते है तो आपको ये फिल्म भी पसंद आ सकती है लेकिन अगर आप पूरे परिवार के साथ जा कर कामेडी, ऐक्शन और मसाला फिल्मों के मज़े लेने वालो में से है तो दूर ही रहने में भलाई है।