Monday, November 19, 2012

पोंटी चड्ढा के कुनबे और कारोबार की पूरी कहानी

दैनिक भास्कर अखबार के सौजन्य से-- 


लखनऊ. बाल ठाकरे के निधन के चलते उत्‍तर प्रदेश के सबसे बड़े कारोबारी पोंटी चड्ढा की हत्‍या की खबर मीडिया में दब गई, लेकिन यह बड़ा सवाल बना हुआ है कि उनका हजारों करोड़ रुपये का कारोबार अब कौन संभालेगा? उनकी तीन संतानें हैं। दो बेटियां और दोनों के बीच बेटा मोंटी। पोंटी के छोटे भाई राजिंदर सिंह उर्फ राजू की भी भूमिका इसमें अहम हो सकती है। पोंटी के दादा गुरुबचन सिंह चड्ढा के छह बेटे हुए- कुलवंत सिंह, हरभजन सिंह, सुरिंदर सिंह, गुरुबख्श सिंह, सुरजीत सिंह और हरिंदर सिंह। कुलवंत सिंह, हरभजन सिंह और सुरिंदर सिंह का परिवार मुरादाबाद में रहता है। बाकी भाई मुंबई चले गए थे। इनमें कुलवंत सिंह के तीन बेटे हुए गुरुदीप सिंह उर्फ पोंटी, राजिंदर सिंह उर्फ राजू और हरदीप सिंह उर्फ सतनाम। शनिवार को हुए खूनी संघर्ष में पोंटी और सतनाम की जान चली गई। उनके पिता कुलवंत एक साल पहले ही बीमारी के कारण चल बसे थे। सो, अब कुलवंत के परिवार में एक बेटा राजू और पोता (पोंटी के बेटे) मनप्रीत सिंह उर्फ मोंटी चड्ढा ही बचे हैं।


सुरिंदर सिंह के परिवार के पास गिन्नी बार एंड रेस्टोरेंट हैं। शराब के कारोबार में उनके परिवार का ज्यादा दखल नहीं है। भाई हरभजन सिंह शुरू से कुलवंत के साथ ही रहे। इसलिए उनका दखल शराब व रीयल एस्टेट कारोबार में तो है, मगर उन्होंने खुद को मुरादाबाद तक ही सीमित रखा। हरभजन सिंह चड्ढा पोंटी के चाचा तो हैं ही, मगर इनमें एक रिश्ता और भी है। इनकी पत्नियां आपस में बहनें हैं। इस वजह से चाचा-भतीजे का रिश्‍ता हमेशा अच्‍छा बना रहा। पर अब नए हालात में यह रिश्‍ता क्‍या मोड़ लेता है, इस पर लोगों की नजर रहेगी।


हरभजन के बेटे हरवीर उर्फ टीटू और चीकू हैं। इनके पास मुरादाबाद में शराब की कुछ दुकानों के अलावा चड्ढा सिनेमा, होटल 24, चड्ढा कांप्लेक्स और मुरादाबाद में रीयल एस्टेट का कारोबार है। यहां थोक के शराब कारोबार में पोंटी की भी पार्टनरशिप थी लेकिन यहां का अधिकांश काम हरभजन सिंह व उनके बेटों के नियंत्रण में ही है, जबकि वेव मल्टीप्लेक्स से लेकर वेव रीयल एस्टेट का काम पोंटी का अपना खड़ा किया और फैलाया हुआ है। पोंटी ने अपने दम पर जो हजारों करोड़ का साम्राज्‍य बनाया, उसकी विरासत को लेकर मोंटी या पोंटी के भाई राजिंद्र सिंह का ही नाम चर्चा में आ रहा है। चड्ढा परिवार के कारोबार का ज्‍यादातर हिस्‍सा पोंटी चड्ढा का ही खड़ा किया हुआ है। पाकिस्तान के बंटवारे बाद पोंटी चड्ढा के दादा गुरुबचन सिंह अपने दो बेटों कुलवंत सिंह चड्ढा और हरभजन सिंह चड्ढा के साथ पहले पीरूमदारा (रामनगर) फिर मुरादाबाद पहुंचे थे इन दो बेटों ने दूध बेचने से कारोबारी शुरुआत की थी। उनका दूध तत्कालीन आबकारी इंस्पेक्टर एसपी अदीब के घर भी जाया करता था। एसपी अदीब ने ही उन्हें ताड़ीखाना पर भांग की दुकान दिलाने में मदद की। इसके साल भर बाद पोंटी के पिता व चाचा ने गुरहट्टी पर देशी शराब का ठेका भी ले लिया। इसके बाद के वर्षो में धीरे-धीरे शराब की दुकानें बढ़ाई और साथ ही ट्रक-ट्रांसपोर्ट, फाइनेंस कंपनी, सिनेमा, होटल तक का काम बढ़ाया।

मुरादाबाद में चड्ढा परिवार ने ताड़ीखाना के पास आकर मकान लिया था और यहीं बस गए। गुरुबचन सिंह के कुछ बेटों ने तभी मुंबई का रुख कर लिया था। गुरदीप सिंह उर्फ पोंटी जब जवान हो ही रहा था, तभी पतंग की डोर से फैले करंट के कारण उसे बायां हाथ गंवाना पड़ा। दाएं हाथ में भी केवल दो अंगुलियां ही बचीं। तब उनके भविष्‍य को लेकर परिवार वाले फिक्रमंद थे। उन्‍हें नहीं लगता था कि वह कुछ कर पाएगा। लेकिन पोंटी ने करीब 25 साल पहले पहाड़ का रुख किया। हल्द्वानी ही वो जगह थी, जहां पोंटी सबसे बड़ा जैकपॉट लगा बदरफुट के ठेके से। इसके बाद ललितपुर में ग्रेनाइट की खान का भी ठेका मिला तो कारोबार आसमान की ओर जाता दिखने लगा। इसके बाद उन्होंने उन्होंने अपने बलबूते न केवल उत्तराखंड व उत्तर प्रदेश बल्कि दक्षिण भारत में आंध्र प्रदेश और तमिलनाडु तक अपना कारोबार फैला लिया। पंजाब से पुश्तैनी रिश्ता था और सगे संबंधी भी थे। वहां शराब के व्यवसाय पर एक अकाली नेता का क़ब्ज़ा था। जब सत्ता कांग्रेस के पास आई तो चड्ढा ने अकाली आधिपत्य को तोडऩे की जुगत बताई जो कांग्रेसियों को बहुत भाई। चड्ढा को पूरा बाज़ार सौंप देने के चलते अमरिंदर सिंह बदनाम हो गए। लोग सुप्रीम कोर्ट तक गए। नीलामी की नई प्रक्रिया बनी। रातोंरात चड्ढा के हज़ार कर्मचारियों के पैन कार्ड बन गए। अलग-अलग लोगों को ठेका मिला पर ढाक के तीन पात। सरकार डाल डाल, पॉन्टी पात पात। शराब की दुकानों पर निर्धारित मूल्य से ज़्यादा वसूलते। जब सब दुकानें एक हों तो शराबी क्या करे। सरकार सुनती नहीं, समाज को सहानुभूति नहीं। पोंटी चड्ढा ने उत्‍तराखंड में भी शराब कारोबार पर अपना आधिपत्‍य कर लिया था। चड्ढा परिवार ने अपने नियंत्रण वाली सम्भल इलाके की शराब की दुकानें एक अन्य ग्रुप को दे दीं और उनसे ठाकुरद्वारा ग्रुप की दुकानें ले लीं। फिर पोंटी ठाकुरद्वारा से काशीपुर पहुंचे और वहां वर्ष 1988-89 में शराब की दुकानें लेने के बाद हल्द्वानी पहुंच गए। वहां तत्कालीन आबकारी इंस्पेक्टर जीके गुप्ता ने पोंटी का साथ दिया। उनकी कृपा से हल्द्वानी में पोंटी का शराब के कारोबार पर कब्जा हो गया और फिर पूरे पहाड़ में  भी शराब कारोबार में वह छा गए। नौकरशाही के जरिए उन्‍होंने सरकार में पकड़ बनाई और उत्‍तर प्रदेश की मुलायम सरकार तक पहुंच गए। फिर उन्‍होंने दिल्‍ली का रुख किया और यहां से देश भर में विदेशी बसों को चलाने की एजेंसी ले ली। फिर एक्यूरेट ब्रेवरेज नाम से फर्म बना कर शराब बनाने की फैक्ट्री लगा दी। इस फर्म की उन्होंने कई शाखाएं खोलीं। इसी बीच रीयल एस्टेट में पोंटी ने पांव रखा। धीरे-धीरे चड्ढा ग्रुप ऑफ कंपनीज फैलता गया और पोंटी बॉलीवुड तक पहुंच गए। वह चड्ढा ग्रुप ऑफ कंपनीज के जरिए ही फिल्म वितरक और निर्माता भी बन गए। वेव मोशन पिक्चर्स के बैनर से करीब आधा दर्जन फिल्में भी रिलीज हो चुकी हैं।

उत्‍तर प्रदेश में मायावती के मुख्यमंत्री रहते पोंटी ने सरकारी चीनी मिलों को सस्ते में खऱीदा, रियल एस्टेट में 5000 एकड़ का लैंड बैंक, लखनऊ से लुधियाना तक मॉल-मल्टीप्लेक्स की श्रृंखला, कागज़़ के मिल, फि़ल्म प्रदर्शन-वितरण से निर्माण तक किया। सत्ता से निकटता का दोहन ऐसा कि मायावती के ज़माने में बाल विकास एवं पुष्टाहार योजना का 10,000 करोड़ रुपए का ठेका भी इन्हें ही मिला। जो वयस्कों को शराब पिलाता है, बच्चों के दूध का ठेका भी उसी का। समाजवादी सरकार के युवा अखिलेश ने ऐसी आपत्ति जताकर खूब तालियां बटोरी। जब मुख्यमंत्री बने तो बाल विकास योजना के ठेके की अवधि समाप्त हो गई। नए सिरे से निविदाएं आमंत्रित हुईं। 13,000 करोड़ रुपए का नया ठेका बना। वह भी चड्ढा को मिला। नियमानुसार इस योजना में स्वयंसेवी संस्थाओं और महिला मंडलों को प्राथमिकता मिलनी चाहिए। सरकारें बदलती रही, नियम भी पर पॉन्टी का प्रभुत्व जस का तस बना रहा।

10 पैसे की खातिर चले गए थे 6000 करोड़ के 'मालिक' के हाथ

जालंधर। पॉन्टी अपने करीबियों से अक्सर जिक्र किया करते थे कि दस पैसे की खातिर मैंने अपना हाथ गंवा दिया। करीबियों को सुनाया गया किस्सा यह है कि मुरादाबाद में ईदगाह रोड स्थित आदर्श नगर में पॉन्टी की रिहायश थी।  बात उस समय की है जब पॉन्टी की उम्र 10-11 साल रही होगी। एक दिन दोस्तों के साथ पतंग उड़ा रहे थे कि उनकी पतंग बिजली की तार में फंस गई। दोस्त के साथ मिलकर लोहे की रॉड से पतंग निकालनी चाही, तभी करंट लग गया।

दोस्त मौके पर दम तोड़ गया था, पॉन्टी की जान बच गई मगर दोनों हाथ बेकार हो गए। बाएं हाथ को काटना पड़ गया था। दाएं हाथ की उंगलियां काटनी पड़ी। बाद के वर्षो में उन्होंने दाएं हाथ की सर्जरी करवाई थी।  इसी हाथ से वह सारा काम करते थे। पॉन्टी के पिता कुलवंत सिंह उत्तराखंड के जिला नैनीताल के गांव पीर मजारा के रहने वाले थे। पॉन्टी के बेटे मोंटी चड्ढा की शादी अमृतसर में हुई है। पॉन्टी की दो शादीशुदा बेटियां दुबई में हैं। अर्बन एस्टेट स्थित रविंदर नगर में पॉन्टी चड्ढा की एक आलीशान कोठी है।8 मई, 2005 को कोठी में काम करने वाला नेपाली नौकर राम कुमार ने पोंटी के अंगरक्षक सुरिंदर सिंह को चाय में नशीली दवा मिलाकर पिला दी। इसके बाद कोठी से एक करोड़ दस लाख रुपए समेटकर पत्नी गीता के साथ भाग निकला। खबर पॉन्टी को मिली तो उसने अपने नेटवर्क के माध्यम से पता लगा लिया कि नौकर राम कुमार अमृतसर में है। पुलिस को लेकर खुद पॉन्टी अमृतसर गए और राम कुमार को न सिर्फ पकड़वाया बल्कि रकम भी बरामद करवा ली। राम कुमार सड़क किनारे रुपयों का बिस्तर बिछाकर सो रहा था जब पुलिस ने उसे दबोचा। उसी सिलसिले में पॉन्टी चड्ढा थाना-सात तक आए, मगर गाड़ी से नहीं उतरे थे।


कहते हैं कि तेज दिमाग वाला यह शख्स हर काम सलीके से करना जानता था। राम कुमार को अकेले दम भी पकड़ सकता था, मगर पुलिस को साथ इसलिए रखा ताकि कानूनी अड़चन न आए। 11 नवंबर 2006 को राम कुमार को अदालत ने दो साल कैद की सजा सुनाई थी।


Wednesday, November 14, 2012

जब तक है जान

         जब आप किसी ज़रूरी कागजात पर काम ख़त्म कर रहे होते है तो आखिर में आप क्या करते है – “दस्तखत”.... जो आपकी पहचान है। अपनी जिंदगी की आखिरी फिल्म को यश चोपडा ने अपना दस्तखत बनाया है। चोपड़ा की फिल्मो की खासियत होती है जज्बातों में डूबी कहानी, दमदार हीरो, खूबसूरत हिरोइन, बेहतरीन लोकेशंस, जानदार डायलॉग और दिल को छू लेने वाला म्युज़िक। साथ में एक फार्मूला भी होता है- खूब सारा रोमांस, रोमांस से निकलता है दर्द , दर्द आंसू देता है और कायदे से दिखाया गया आंसू तो बॉक्स ऑफिस पर हिट है ही। जब तक है जान इन सारी कसौटियो पर खरी उतरती है।

        यूँ तो हर फिल्म की बात करते वक़्त सबसे पहले हम उसकी कहानी का ज़िक्र करते है मगर आज बात पहले शाहरुख़ खान की। शाहरुख़ बैक टू द बेसिक्सके अंदाज़ में है। उन्हें एक अच्छी हिट की बहुत सख्त ज़रुरत थी और शायद ये फिल्म उनकी ख्वाहिश पूरी कर दे। उन्होंने फिल्म में अपने उसी अंदाज़ का इस्तेमाल किया है जिसकी पूरी एक पीढ़ी दीवानी है। वैसे भी बॉलीवुड में रोमांटिक रोल में फिलहाल शाहरुख़ के आगे अभी भी कोई नहीं है। शाहरुख़ रोमांटिक डायलॉग बोलते समय बेहद सहज लगते हैं, और बिना कुछ कहे आंखों से बोलने के फन में उनकी महारत है ही। लेकिन हाँ एक बात ज़रूर है की अब उनके चेहरे पर उम्र के निशान गहराने लगे हैं। 

       अब बात करते है कहानी की जिसे आदित्य चोपडा ने लिखा है और जो अपनी धीमी रफ्तार की वजह से फिल्म का कमज़ोर पक्ष है। कहानी के तीन किरदार समर, मीरा, और अकीरा है। यश चोपड़ा ने जितनी भी प्रेम कहानियों पर फिल्में बनाईं, उसमें आशिक हमेशा बेमिसाल मोहब्बत करने वाले होते हैं लेकिन अफसोस कि उन्हें अपना पसंदीदा साथी नहीं मिलता। इस नाकामी को अपने दिल में संजोये वो उसकी यादों के सहारे पूरी जिंदगी काट देते है। याद कीजिये कभी-कभी या फिर वीर-जारा। जब तक है जान की कहानी भी इसी तरह की है जो फिल्म की शुरुआत में धीमी और कहीं कहीं बोरिंग भी है, लेकिन धीरे-धीरे बात बनने लगती है। दरअसल यहीं यश चोपड़ा ने अपना खेल दिखाया है। उन्होंने एक मामूली कहानी को अपने दमदार प्रस्तुतिकरण के सहारे छुपा दिया है। यश चोपड़ा हमेशा से इस काम में ‍माहिर थे। उन्होंने किरदारों के अंदर चल रही भावनाओं को बेहतरीन तरीके से स्क्रीन पर पेश किया है। कई ऐसे सीन है जो दिल को छूते हैं और आँखों में नमी ला देते है, यही चोपड़ा स्कूल ऑफ़ डायरेक्टिंग की खासियत है। आप एक ही वक्त में मुस्कुराते है और रोते भी हैं।

       कैटरीना कैफ और अनुष्का दोनों खूबसूरत है और लगी भी। कैटरीना के पास अभिनय के कई शेड्स दिखाने का मौका था उन्होंने कोई कमाल की अदाकारी तो नहीं की है पर एक्टिंग में कोई बहुत बड़ा कमाल तो वो कभी भी नहीं करती है । हाँ, दिए गए काम को उन्होंने खूबसूरती से दिखते हुए निभा दिया इसमें कोई शक नहीं। अनुष्का के पास बबली गर्ल का किरदार है और उन्होंने भी अपना काम ठीक ठाक किया है । दरअसल मुझे निराश किया तो ए आर रहमान ने । उनका काम बस ठीक ठाक ही लगा। तमाम गानों में हीर”  बेहतर था। शाहरूख और कैटरीना पर फिल्माया गया ""इश्क शावा" में मेहनत तो काफी की गयी लेकिन सुनने से ज्यादा ये गाना देखने लायक है। यश चोपड़ा की फिल्मो के म्युज़िक से आप ये उम्मीद करते करते है की जब आप सिनेमा हॉल से निकले तो फिल्म के गाने आपकी जुबां पर हो, पर ऐसा हुआ नहीं । यहाँ पर फिल्म के बैकग्राउंड म्युजिक का जिक्र ज़रूरी है जो जानदार है और फिल्म के बेहतरी में मददगार है।

      दरअसल यश चोपड़ा को आज भी लगता है की दुनिया में अच्छे लोग है। ऐसे लोग है जो उम्र भर किसी से प्यार कर सकते है बिना उससे मिले- बिना उसे देखे। ऐसे लोग है जिनके लिए दुनिया में सबसे अहम् है प्यार और उससे जुड़े रिश्ते। अगर आपको भी ऐसा लगता है तो फिल्म आपको बहुत पसंद आएगी, और अगर आप इस ख्याल को सपना मानते है तो यही यश चोपड़ा की खासियत है की वो आपको सपनो की दुनिया में ले जाते है और तीन घंटे तक बाँध कर रखते है ।       




Sunday, August 19, 2012

अलविदा लक्ष्मण


           कलाई के जादूगर लक्ष्मण का एक स्ट्रोक तो मै कभी नहीं भूल सकता - जेसन गिलस्पी की एक गेंद जो ऑफ स्टंप पर लगभग वाइड थी उसे उन्होंने लेग स्टंप पर 4 रनों के लिए भेज दिया बिना किसी मुश्किल के बेहद आराम से।

           एक कलाकार के लिए दो गुण होना सबसे ज्यादा ज़रूरी है । पहली नैसर्गिक कला और दूसरी उस पर मेहनत, पर लाज़मी तौर पर सबके पास सब कुछ नहीं होता । कुछ उसे ऊपर से लेकर आते है, कुछ उसे और निखारते है ।  जब मेहनती राहुल द्रविड़ ने अपने ग्लव्स टाँगे तो मशहूर फैब 4 में से दूसरा विकट गिरा पर अफ़सोस कि हर बार की तरह इस बार नैसर्गिक कला के माहिर लक्ष्मण बचाने नहीं आये बल्कि उन्होंने भी पवेलियन का रुख कर लिया । वीवीएस की बैटिंग कुछ अलग थी । वो सहवाग कि तरह कसाई नहीं है, वो द्रविड़ की तरह पसीना बहाते नहीं दीखते और न ही तेंदुलकर कि तरह अमूर्त भगवान् । उनकी कला में नफासत है, नजाकत है एक हुनरमंद चित्रकार की तरह । वो ताक़त नहीं दिखाते, ना ही उनके शोट्स ऐसे होते है जैसे गेंदबाज़ से उनकी कोई जाती दुश्मनी हो । वो तो बस गेंद को ऐसे बाउंड्री पर भेज देते है जैसे कोई पेंटर ब्रश फेरता है । उनकी बल्लेबाज़ी पाक है, मासूम मोहब्बत की तरह एक मखमली एहसास से भरी ।

         पर उनकी विदाई अलग रही, अचानक और अवाक। ताज्जुब इस बात का कि लक्ष्मण ने अपने घरेलू दर्शकों के सामने विदाई टेस्ट मैच खेलने का अवसर भी ठुकरा दिया। समझ में नहीं आया कि लक्ष्मण के अचानक संन्यास लेने के पीछे का राज क्या है ? मृदुभाषी, शांत और सयंत लक्ष्मण ने अपनी तरफ से ऐसा कोई संकेत नहीं दिया कि आखिर उन्होंने संन्यास क्यों लिया ? उन्होंने सिर्फ इतना कहा कि उन्होंने अपनी अंतरात्मा की आवाज सुनी और तय किया कि यह संन्यास लेने का सही समय यही है। बेशक उन्हें जाना था और वो गए भी, मगर इस तरह जाने पर सवाल उठ रहे है। आखिर उनके जैसे क्रिकेटर पूरी पीढ़ी में बस एक बार ही आते हैं। वो उन चंद बल्लेबाज़ों में से थे जिन्हें बड़ा लक्ष्य डराता नहीं है, मज़बूत टीमो के खिलाफ उम्दा प्रदर्शन उनकी लत थी और जब टीम मुश्किल में हो तो वो हमेशा चट्टान बने खड़े मिलते थे । वो कितने बेमिसाल रहे है इसे बताता है दूसरी पारी में उनका बेहतर प्रदर्शन । जब विकेट टूट रहा हो, विपक्षी हावी हो, तब पुछ्छाले बल्लेबाजों के साथ मैच जिताने या बचाने में तो जैसे उन्हें महारत हासिल थी । उन्होंने अपनी हर पारी में, अपने हर स्ट्रोक में क्रिकेट के शौकीनों को चमत्कृत किया और ऐसी कई क्लासिकल पारियाँ खेलीं जो उन्हें बेजोड़ बनाती है । दूसरी पारी के इस महान बल्लेबाज़ के लिए तो मज़ाक में ही सही मगर कहा ये भी जा रहा है कि अपनी 2ND Inning  में बार बार हारती UPA सरकार को उनकी सेवाए लेनी चाहिये क्यूंकि अब लक्ष्मण ही उन्हें बचा सकते है

         दरअसल क्रिकेट में इंडिया शाइनिंग की असल बुनियाद उन्होंने ही रखी थी । याद कीजिये 2001 में कोलकाता के ईडेन गार्डेन्स के मैदान को जब लक्ष्मण नए भारत कि नींव रख रहे थे। वो भारत जिसे विपक्षी टीम को रौदने वाली आस्ट्रेलिया से डर नहीं लगता, वो भारत जो फालोआन मिलने के बावजूद मैच जीत सकता है, और वो भारत जिसका बल्लेबाज़ आराम से दुनिया के सबसे महान गेंदबाजी आक्रमण को स्कूली बच्चो की तरह रुला सकता है । लक्ष्मण की उस एक पारी ने हर हिन्दुस्तानी को हम में है दमका एहसास कराया । ओबामा तो बहुत बाद में एस वी कैनलेकर आये आम हिन्दुस्तानी को ये चीज़ लक्ष्मण ने बहुत पहले ही सिखा दी थी । ऑस्ट्रेलिया के खिलाफ ईडन गाडर्न्‍स में लक्ष्मण की 281 रन की पारी टेस्ट क्रिकेट के इतिहास की सबसे यादगार पारियों में से एक है। लक्ष्मण ने 134 टेस्ट में 45.97 की औसत से 8781 रन बनाए। उन्होंने 17 शतक और 56 अर्धशतक भी जड़े जिनकी बदौलत भारत ने कई टेस्ट जीते और कई बचाए। लक्ष्मण ने 86 ODI भी खेले जिसमें उन्होंने 30.76 की औसत से 2338 रन भी बनाए। आस्ट्रेलिया उनका मनपसंद शिकार था । ट्विट्टर पर एक मज़ाक काफी चर्चा में है कि जब गाँधी जी को गोली लगी तो उनके शब्द थे हे राम”, आस्ट्रेलियाई कप्तानो के शब्द होंगे हे लक्ष्मण

             लक्ष्मण टीम मैन थे ज़रुरत पड़ी तो सलामी बल्लेबाज बने, हालाँकि वो ऐसा कभी नहीं चाहते थे । जब टीम ने चाहा तो तीसरे नंबर पर बल्लेबाजी की, टीम कि मांग के मुताबिक चौथे, पांचवे और छठे नंबर पर भी बल्लेबाज़ी पूरी ईमानदारी से की । अक्तूबर 2010 में ऑस्ट्रेलिया के खिलाफ मोहाली में नाबाद 73 रन की पारी खेली जब भारत 210 रन के लक्ष्य का पीछा करते हुए 124 रन पर आठ विकेट गंवा चुका था। उन्होंने इशांत शर्मा के साथ नौवें विकेट के लिए 81 रन जोड़े और फिर 11वें नंबर पर बल्लेबाजी करने आए प्रज्ञान ओझा के साथ 20 मिनट क्रीज पर बिताते हुए भारत को जीत दिलाई। ये एक मिसाल बताती है कि वो किस मिटटी के बने है । मज़बूत इरादे वाले शांत व्यक्ति जो बला की खूबसूरती के साथ बल्लेबाज़ी करता है । अलविदा लक्ष्मण हम नहीं जानते कि अब हम आपके जैसा जादूगर फिर कब देखेंगे , हम ये भी नहीं जानते कि क्या वो बल्लेबाज़ी को आपके जितना खूबसूरत बना पायेगा, और अगर कहीं बना ले गया तो भी क्या उसमे आपके जैसी विनम्रता बनी रहेगी .  

Tuesday, July 17, 2012

युवा और राजनीति- मेरे छोटे भाई रूद्र द्वारा लिखा गया लेख


विषय-युवा एवं राजनीती

मूल विषय पर आने से पहले हम ये जान ले की वास्तव में हम युवा किसे बोल सकते है?यदि हम उन सभी सुने-सुनाये तर्कों,उक्तियो,एवं कथाओ को किनारे पर रख दे (जिसमे व्यक्ति के कार्यो की उर्जा,उसकी देह,उसकी काया,उसका परिश्रम उसे युवा सरीखा दिखाते है भले ही उसकी उम्र ६० से ऊपर हो) तो पाएंगे की वास्तविकता यही है कि १७ से ३५ की उम्र की सीमा के मध्य आने वाले लोग ही वास्तव में युवा कहलाने के अधिकारी है।क्यूंकि यही वो उम्र सीमा है जिसमे व्यक्ति की उर्जा,उसकी कार्यक्षमता,उसके विचार,उसकी द्रष्टि एवं उसका समर्पण ये सब वेगवान एवं नवीन होते है।

अब जरा ये भी जान लेते है की राजनीती क्या है? राजनीती शास्त्र में स्नाकोत्तर एवं तत्पश्चात शोध करते हुए सरल शब्दों में जितना मै राजनीती को समझ पाया हूँ,वो मात्र इतना है कि वो नीति जो राज्य का सफल सञ्चालन करे उसे ही राजनीती कहा जा सकता है या कहते है।हालाँकि इसके इतर आपको बहुत सी परिभासाएं मिल जाएगी लेकिन मेरा मानना है कि एक आम आदमी भी राजनीती को काफी कुछ इन्ही अर्थो में लेता है।

युवाओं और राजनीती में क्या समानताएं हैं:-

वर्तमान समय की राजनीती और युवाओं के मध्य यदि समानता खोजने चले तो पाएंगे की जो समानता सबसे प्रमुख है वह ये है की दोनों के सामने ही पहचान का संकट है और शायद इसका मुख्या कारण ये है की दोनों ही अपने-अपने मार्ग भूल चुके है।

आज-कल के युवा, रोजगार के नाम पर किसी अन्य देश में जा कर गाडी चलाना या ऑफिसर बन जाना ज्यादा पसंद करेंगे और आज-कल की राजनीती, वो तो विचारोतेजक व्याख्यान देने वालो जननायको से हो कर वर्तमान में गनरो से लैश कुछ पैसे वालो या बाहुबलियों के हाथो का मोहरा बनता जा रही है।

मेरे विचार से इन दोनों की बिगडती हुई दशा का मुख्य कारण शायद दोनों का एक-दूसरे से अलग हो जाना है।यदि हम गहराई से जा कर उन कारणों की विवेचना करे जिनके कारण युवा एवं राजनीती दोनों एक दूसरे से अलग हो चुके है तो पाएंगे की राजनीती में युवाओं को मिलने वाली उपयुक्त अवसरों की कमी,परिवारवाद का गहरे तक पैठ जमा लेना,युवाओं को कम उम्र का हवाला दे कर उनकी क्षमताओं की अवहेलना करना या फिर कहीं-कहीं पर राजनीती की अस्थिर प्रकृति भी हो सकती है।

कारण चाहे जो भी हो लेकिन परिणाम निश्यचात्मक ढंग से सुखांत नहीं दिख रहा है। हम कब तक युवाओं को राज्य सञ्चालन की जिम्मेदारी से दूर रख सकते है? स्मरण रहे,क्रांति हमेशा शोषित वर्ग द्वारा ही होती है।

कुछ मजेदार तथ्य भी देखिये-

काफी प्रयासों के बाद मतदान के लिए तो निम्नतम आयु १८ वर्ष कर दी गयी परन्तु उम्मीदवार बनने के लिए अभी भी २५ वर्ष ही उम्र रखी गयी है।इसका अर्थ ये है की देश को कौन सम्हालेगा ये तो वो तय करेंगे लेकिन अगर वो खुद भी उन लोगो में शामिल होना चाहे तो हमेंउन्हें ७ वर्षो का लम्बा इंतज़ार करना पड़ेगा, भले ही वो देश की दशा या दिशा से कितना ही असंतुष्ट ही क्यूँ न हो, भले ही राजनीतिक प्रकियाओं को वो कितना ही नजदीक से क्यूँ न देख चुका हो,भले ही राजनीतिक दलों की कार्य पदत्ति को कितने ही बेहतर तरीके से वो क्यूँ न समझ चुका हो एवं आम लोगो से उसका संवाद भले ही कितना ही प्रगाड़ हो लेकिन उसे प्रतीक्षा करनी पड़ेगी और आज के अर्थ-प्रधान युग में कोई युवा इतना बड़ा जोखिम लेने की स्थिति में नहीं रहता है।

हालाँकि भारत को सर्वाधिक नवजवानों वाला देश माना जाता है लेकिन क्या विश्व में भारत की पहचान एक नवयुवकों वाले देश के रूप में है? अंतररास्ट्रीय मंचो पर होने वाले खेल-आयोजन हो या वैश्विक ज्वलंत मुद्दों पर होने वाली बैठकें..आतंकवाद, नक्सलवाद से लड़ने वाली हमारी कार्यपदत्ति या परिणाम हो या वैश्विक परिद्रश्य में मित्रो से ज्यादा हमारे दुश्मनों की संख्या, इन सभी प्रश्नों को उठा के देखेंगे तो पाएंगे कहीं ना कहीं हमारी नीतियों में कुछ कमी है और कमी शायद यह की जिन दो चीजों को हम सबसे ज्यादा प्रचारित करते है कि "भारत विश्व का सबसे बड़ा लोकतंत्र है और भारत विश्व का सबसे अधिक युवाओं वाला देश है"-दोनों का ही आपस में कोई सामंजस्य नहीं है।सबसे नरम रोएं वाले लड़के, लड़कियां जब च्युइंगम चबाते हुए आई हेट पालिटिक्सकहते हैं तो आसानी ने नजर न आने वाला एक मेटामार्फासिस घटित होता है। वे लोकतंत्र की सड़क पर फुदकते मासूम मेढकों में बदल जाते हैं जिस पर जनविरोधी राजनीति के रोड रोलर गड़गड़ाते हुए गुजर रहे हैं। हालाँकि मेरा मानना है कि कमाने-खाने-वंश बढ़ाने से इतर नई राहें चुनने वालों के लिए परिवार हमेशा वाटर लू साबित हुआ है। लेकिन हिन्दी पट्टी में कई नेता इसके उलट उदाहरण हैं जो पार्टी में आए ही इसलिए कि इच्छित समय पर खेती के काम के लिए सस्ते मजदूर मिल सकें। सिर्फ जवाहर लाल नेहरू और मुलायम सिंह यादव ही परिवारवादी नहीं हुआ करते।याद रखिये आप सीईओ हैं, आईएएस हैं, प्रोफेसर हैं, वैज्ञानिक हैं, फिल्मकार हैं, आप जो भी हैं राजनेताओं को खूब कोसते हैं लेकिन अपने तबादले और टुच्ची सहूलियतों के लिए उन्हीं के आगे खींसे निपोरे झुके पाए जाते हैं। क्या आपको इस पाखंड से निजात नहीं पा लेनी चाहिए? जो आपकी नजर भ्रष्ट, तिकड़मी और पतित हैं क्या उनकी गलत राजनीति को अपदस्थ करने के लिए आपको सही राजनीति नहीं करनी चाहिए। चाहे यह कितना ही असंभव सा काम क्यों न हो।

पूरी तरह से बीमार हो चुके समाज के साथ सामंजस्य बना लेना तो हमारे स्वस्थ होने का पैमाना नहीं हो सकता।आज हम युवाओं में बढते अपराध, गैर जिम्मेदाराना व्यवहार की तो चर्चा करते है लेकिन इसके मूल में नहीं जाते।जहाँ तक एक युवा होने के नाते मै समझ पाया हूँ वो सिर्फ इतना है कि हम उन्हें वो जिम्मेदारी नहीं प्रदान कर रहे हैं जो स्वतंत्र आन्दोलन या जे.पी. आन्दोलन के समय तत्कालीन नेत्रत्व्कर्ताओ ने विश्वास कर के प्रदान की थी या कुछ अर्थो में उन्होंने खुद ही पहल कर के जिम्मेदारी हाथ में ले ली थी। खुदीराम बोस-१८ वर्ष एवं शहीद-ऐ-आजम भगत सिंह-२३ वर्ष इसके ज्वलंत उद्धरण है।उनके तरीके उचित थे या अनुचित ये बहस का विषय हो सकता है लेकिन उनकी मंशा और नियति सर्वोच्च थी-इसमें कोई संशय नहीं है।

क्रन्तिकारी कवि पाश ने लिखा था कि-
"मेहनत की लूट सबसे खतरनाक नहीं होती ।
पुलिस की मार सबसे खतरनाक नहीं होती ।
सबसे खतरनाक होता है मुर्दा शांती से भर जाना ।"

इसीलिए जिम्मेदारी सिर्फ एक तरफ़ा नहीं हो सकती, युवाओं कि भी जिम्मेदारी बनती है कि वो तब तक किसी भी नेता,व्यवस्था,दल या नीति कि आलोचना न करे जब तक कि उसके बारे में अधिक से अधिक न जान लें। हम सिर्फ राजनीती .को गंदगी कह के अपना दामन ज्यादा दिन तक साफ़ नहीं रख सकते है।बेर्टोल्ट ब्रेष्ट बोला करते थे कि "सबसे जाहिल व्यक्ति वह है जो राजनीतिक रूप से जाहिल है.लगता है उसे पता नहीं कि जीने का खर्च, सब्ज़ि‍यों की, आटे की, दवाओं की क़ीमत, किराया-भाड़ा, सब कुछ राजनीतिक फ़ैसलों पर निर्भर करता है। वह तो अपने राजनीतिक अज्ञान पर गर्व भी करता है, और सीना फुलाकर कहता है कि वह राजनीति से नफ़रत करता है"।इसलिए युवाओं अब आपके राजनीती से दूर रहने कि बेला का अंत हुआ, उठिए और पूरे वेग के साथ आगे आइये।
हम परिवर्तन को इंतजार करने के लिए नहीं बोल सकते और वो भी तब जब कि वो समय कि मांग बन चुका हो।आज तो अधिकतर राजनीतक दलों कि यूथ विंग की कमान भी कुछ ऐसे "युवाओं" के हाथ में जिनकी आयु ४० से ऊपर हो चुकी है।हम कब तक नए खून को केवल रैलियों या लाठी-चार्ज में आगे खड़े होने के लिए इस्तमाल करते रहेंगे? मुझे ऐसा भारत स्वीकार नहीं जहाँ करोडो नवजवान लाठी खाते हुए किसी रिअलिटी शो के आडिसन के लिए गेट पर खड़े रहे और मतदान वाले दिन मतदान केंद्र लोगो की बाट जोहे। मै आगे बढ़ना चाहता हूँ,मुझे अपना हक चाहिए और वो भी किसी अहसान के रूप में नहीं बल्कि इसलिए क्यूंकि मै सक्षम हूँ। आप परीक्षाएं लेना चाहते है तो लें लेकिन मुझे अवसर दीजिये-सफलता या असफलता की गारंटी कोई नहीं ले सकता लेकिन कम से कम आप इस अपराधबोध से तो बच सकेंगे की समाज का एक वर्ग अभी भी उचित अवसर नहीं पा रहा है।हालाँकि दुनिया बड़ी है, आबादी ज्यादा। हर दिन लोग मर रहे हैं। उनके लिए शोकगीत लिखे जा रहे हैं, संस्मरण छप रहे हैं और संस्थाएं बन रही हैं। ऐसे में युवाओ का राजनीती में आने पर लिखने का मतलब नहीं बनता लेकिन मै कहा मानने वाला??