Saturday, September 24, 2011

Film Review: 'Mausam'

हिंदी सिनेमा में बहुत दिनों से किसी खालिस रोमांटिक फिल्म की कमी महसूस की जा रही थी। जब मौसम के प्रोमोज आये तो हर किसी को ये लगा की ये वो फिल्म है जो मोहब्बत के नए मायने सामने लाएगी। फिल्म का प्रमोशन भी कुछ इसी अंदाज़ में हुआ । फिल्म है भी रोमांटिक, मगर अफ़सोस की मौसम काफी कुछ उस तरह की है जिसमे एक लेखक कहानी तो लिख तो देता है पर वो ये नहीं तय कर पाता की इसमें से क्या रखू या क्या हटा दूँ. ? फिल्म में फ्लो का अभाव इस कदर नजर आता है की जैसे ही आप फिल्म को पसंद करने लगते है, आपके मुह पर 10 मिनट की बोरियत का तमाचा पड़ जाता है । पहला हाफ तो फिर भी हंसी मजाक में कट जाता है, लेकिन इंटरवल के बाद तो कई बार मन में ये सवाल उठता है की आखिर ये सीन फिल्म में क्यूँ है ? दरअसल अगर डायरेक्टर खुद अपनी ही फिल्म पर फ़िदा हो जाए तो फिल्म के लिए मुश्किल हो जाती है, और यही बात फिल्म के लिए सबसे खतरनाक साबित हुई।

कहानी -
मौसम की कहानी को उम्र के अलग अलग दौर और उस वक़्त की घटनाओं के मेल से बुना गया है। फिल्म के पहले मौसम में पंजाब के गांव में रहने वाले वाले हैरी (शाहिद) और कश्मीरी से विस्थापित हुई आयत (सोनम) का एक-दूसरे को पसंद किया जाना दिखाया गया है। दोनों फिल्म में कई बार मिलते है, बिछड़ते है । फिल्म में विलेन हालात है जो कभी कश्मीरी आतंकवाद के रूप में तो कभी अयोध्या कार सेवा के रूप में तो कभी बाम्बे ब्लास्ट के रूप में और गुजरात दंगो के रूप में सामने आता है। यकीन मानिये की जब तक कहानी पंजाब में रहती है फिल्म में कशिश रहती है। लडकपन का रोमांस देखना वाकई मज़ेदार लगता है, पर ज्यों ज्यों कहानी आगे बढती है, उसे हज़म करना मुश्किल हो जाता है ।

अभिनय
शाहिद और सोनम दोनों आज के ज़माने के स्टार है। दोनों ने अपना काम अच्छा भी किया है, मगर अलग अलग। रोमांटिक फिल्मो के लिए बहुत ज़रूरी होता है की लड़का और लड़की में केमेस्ट्री दिखे जो अफ़सोस इस फिल्म में नदारद है । एअर फोर्स में शामिल होने के पहले के द्रश्यो में शाहिद कपूर खासे जमे है। सोनम कपूर अपने रोल के मुताबिक फिल्म में मासू‍मियत और खूबसूरती को समेटे हुए है। मगर दोनों साथ साथ उस कदर के ज़ज्बात को सामने नहीं ला पाए जिसका दावा ये फिल्म कर रही थी । जहाँ तक दुसरे कलाकारों की बात करे तो सुप्रिया पाठक बेहतरीन कलाकार है और बुआ के रूप में उन्होंने उम्दा काम किया है, अनुपम खेर भी दिखते है पर यहाँ अदिति शर्मा (रज्जो ) का जिक्र करना ज़रूरी है जो तमाम बड़े कलाकारों के बीच ध्यान खीचने में कामयाब रही है।

म्युज़िक और सिनेमैटोग्राफी
फिल्म म्यूजिकल हिट है। चाहे वो 'रब्बा मैं तो मर गया ओए' हो या फिर "सज धज कर" । इसके अलावा "जब जब चाहा तूने" गाना भी शानदार है. फिल्म का सबसे मजबूत पक्ष फिल्म का म्युज़िक ही है जो वाकई काबिले तारीफ़ है। इसके अलावा फिल्म के सिनेमैटोग्राफर विनोद प्रधान का काम भी बेहद शानदार है, उनके हर शॉट में खूबसूरती है। रही बात डायलॉग की तो उनमे कुछ खास नहीं है.

आखिरी बात-
तो लाख टके की बात ये है कि माना कि पंकज कपूर बेहद शानदार एक्टर है, ये भी माना कि शाहिद और सोनम सुपर स्टार है, ये भी माना कि रोमांटिक फिल्म का मैदान खाली है और ये भी माना कि फिल्म म्यूजिकल हिट है. मगर अफ़सोस ये सारी बाते फिल्म को अच्छी नहीं बनाते। फिल्म सुस्त है और गैर ज़रूरी द्रश्यो से भरी पड़ी है. तकलीफ तो इस बात की है की गलती बेहद काबिल पंकज कपूर के हाथो हुई. मौसम को 5 में से 2 अंक मिलते है

Friday, September 23, 2011

Film Review – Speedy Singh

खेलो को ध्यान में रखकर कई सारी फिल्मे बनी है, जिसमे कुछ कामयाब भी हुई है, खास बात ये है की ज़रूरी नहीं है की फिल्म कामयाब तभी होगी जब वो क्रिकेट पर होगी. चक दे खेलो पर बनी सबसे कामयाब फिल्म मानी जाती है जो हॉकी पर बनी थी. अक्षय कुमार की बतौर निर्माता फिल्म स्पीडी सिंह में भी हॉकी है मगर ये हॉकी आइस हॉकी है। "आइस हॉकी" भारतीय दर्शको के लिए एक नयी चीज़ है


कहानी कुछ यूँ है की टोरंटो में बसे भारतीय परिवार के युवक राजवीर की इच्छा है कि वह कनाडा का सबसे मशहूर खेल आइस हाकी खेले पर उसकी राह में सबसे बड़ी बाधा उसके पिता है। एक सिक्ख परिवार में पले-बढ़े राजवीर के पिता चाहते हैं कि वह अपने धर्म और अपने फैमिली बिज़नैस पर ध्यान दे। राजबीर के पिता जब नहीं मानते तो वह पिता से छिपकर एक कोच ढूंढता है, आइस हॉकी टीम बनाता है। उसके बाद अपने अंकल की ट्रक कंपनी को प्रायोजक बनाता है। टीम का नाम होता है “स्पीडी सिंह”. फिल्म में कुछ ट्विस्ट भी है, मसलन कनाडा की हाकी टीम में शामिल होने के लिए जरूरी है कि वह बाल कटवा ले और पगड़ी न पहने। ऐसे में राजवीर कैसे अपनी टीम को राज़ी करता है और फिर क्या वो कामयाब होते है, इस बयान की कहानी स्पीडी सिंह। इस फिल्म में अक्षय कुमार एक खास भूमिका में हैं।


कहानी एक लाइन की है और कुछ खास भी नहीं है, हम ऐसी कहानी पर बनी तमाम फिल्मे देख चुके है, दरअसल खेलो पर बनी फिल्मो में कहानी से ज्यादा ट्रीटमेंट मायने रखता है मसलन साधा हुआ स्क्रीनप्ले और दमदार डायलॉग. याद कीजिये जब चक दे में शाहरुख़ कहते है की "हर टीम में सिर्फ एक ही गुंडा होता है, और इस टीम का गुंडा मै हूँ" . स्पीडी सिंह ट्रीटमेंट के लिहाज़ से फिल्म बड़े ही पुराने ढर्रे पर चलती है. फिल्म के असल प्रोडूसर टोरंटो के बिजनेसमैन अजय विरमानी है और फिल्म के हीरो उनके बेटे विनय विरमानी. जाहिराना तौर पर फिल्म NRI कल्चर में रची बसी है, इसलिए इसमें चक दे जैसे ट्रीटमेंट की उम्मीद करना भी बेमानी होगा.


अब बात अगर एक्टिंग की करे तो फिल्म के हीरो विनय विरमानी इठलाते शरमाते अपना काम कर गए है, फिल्म की नायिका कैमिला बैले है जिनके पास करने के लिए कुछ खास नहीं था, हाँ कोच की भूमिका में अमेरिकन एक्टर रॉब लू ज़रूर जमे है. अनुपम खेर परेशान पिता की भूमिका कई बार कर चुके है. और हाँ स्पीडी सिंह' में अक्षय कुमार भी अतिथि भूमिका में ज्ञान देते नज़र आएंगे।


फिल्म की USP इसका म्युज़िक है, जिसे दिया है संदीप चोटा ने. सारे गाने पंजाबी है और चार्ट बस्टर्स में छाए हुए है . खासकर शेरा दी कौम काफी चर्चा में है.


दरअसल NRI परिवेश में बनी NRI फिल्म स्पीडी सिंह जिसमे बॉलीवुड के सारे मसाले है भले ही भारतीय दर्शको को ज्यादा न भाए मगर विदेशों में बसे भारतीयों में ये ज़रूर हिट साबित होगी . हम इसे 5 में से 2 अंक देते है

Saturday, September 3, 2011

Film Review – Body Guard

सही कहते है की कामयाबी पाना ज्यादा मुश्किल नहीं है, पर उसे बरकरार रखना ज्यादा बड़ी चुनौती है। विश्वास न हो तो धोनी से पूछ लीजिये। सलमान खान के लिए भी अब वक़्त आ गया है की वो इस बात को समझ जाए । दर्शकों का प्यार पाना मुश्किल नहीं पर उसे संभालना हर किसी के बस की बात नहीं। बेशक सलमान खान की आम जनता में गहरी पकड़ है। ये वो लोग है जो जानते है की सलमान की एक्टिंग में कुछ ख़ास नहीं है, अगर सलमान को कुछ स्पेशल बनाता है तो वो उनका स्टाइल है। चाहे वो वांटेड हो या दबंग या रेडी, किसी भी फिल्म में सलमान खान की एक्टिंग की नहीं बल्कि उनके अंदाज़ की तारीफ़ हुई है, लेकिन सलमान को भी अपने "लॉयल दर्शकों" के बारे में सोचना पड़ेगा वरना भेडचाल के चलते उनकी फिल्म को बड़ी ओपनिंग तो मिल जाएगी पर उसके बाद मुश्किल आएगी, और इसी तरह चलता रहा तो कुछ वक़्त बाद बम्पर ओपनिंग भी मुश्किल हो जायेगी।

बॉडीगार्ड में सलमान फिर से "मेरा ही जलवा" के तर्ज़ पर है, लेकिन अगर बात फिल्म की कहानी की करे तो उसमे जरा भी दम नहीं है। कहा तो ये गया था की फिल्म इंटरटेनमेंट के सारे मसाले है लेकिन हकीकत ये है की फिल्म में ने तो मजेदार कॉमेडी है, न असरदार रोमांस, रही बात USP एक्शन की तो वो भी बेवजह का लगता है । कहानी कुछ यूँ है की बॉडीगार्ड लवली सिंह (खान) को एक रईस और इज्ज़तदार ठाकुर सरताज राणा (बब्बर) की बेटी दिव्या (करीना) की सुरक्षा की ज़िम्मेदारी मिलती है। बॉडीगार्ड होने तक तो ठीक था पर एक दिन दिव्या को उससे प्यार हो जाता है। अब बॉडीगार्ड तो बॉडीगार्ड, वो प्यार कैसे कर सकता है, ख़ास बात ये है की उस बेचारे को पता भी नहीं है की वो जिसका बॉडीगार्ड है वही उससे प्यार करती है. तमाम बेवजह के मोड़ो के बाद बॉडीगार्ड और दिव्या के प्यार को मंजिल मिलती है । कहानी भी ढीली है और इस बार सलमान के डायलोग भी उतना असर नहीं डालते, हाँ एक बात है की जहां भी मौका मिला है, सलमान बॉडी दिखाने से नहीं चूंके है। करीना कपूर अपने देसी लुक में खुबसूरत लगी हैं, बाकियों की बात न ही करे तो अच्छा है।

हाँ फिल्म का म्युज़िक अच्छा है, लंबे अर्से बाद हिमेश रेशमिया एक ज़माने के अपने आका सलमान की फिल्म में वापस आये है और हिमेश ने अपने काम को बखूबी अंजाम दिया। यहाँ पर फिल्म के एक गाने "तेरी मेरी प्रेम कहानिया" का ज़िक्र ज़रूर करना होगा जो सुनने और देखने दोनों में बेहतरीन है.

सौ लफ्जों की एक बात की सलमान की हवा क्या आंधी चल रही है, ऐसे में ये फिल्म न केवल चल ही जाएगी बल्कि पैसे भी खूब कमाएगी लेकिन वक़्त आ गया है की सलमान को ये सोचना चाहिए की हमेशा ये दौर नहीं रहेगा.

आखिर में एक बात कि " सलमान भाई मुझ पर एक अहसान ज़रूर करना कि दुबारा बॉडीगार्ड जैसे एहसान मत करना"

Friday, July 15, 2011

बेशर्म बयान

राहुल गाँधी कहते है- साल में एक-दो हमले तो हो ही सकते हैं...

दिग्विजय कहते है- हम पाकिस्तान की तुलना में बेहतर हैं, वहां हर हफ्ते धमाके होते रहते है

सत्यव्रत कहते है- कौन सा पहाड़ टूट पड़ा

सुबोधकांत सहाय- (मुंबई धमाकों के बाद फैशन शो के मजे लूट रहे थे) कहते है- जिंदगी चलती रहनी चाहिए

चिंदबरम कहते है- पूरी दुनिया में होती रहती हैं आतंकी घटनाएं।

जब आप और हम बम धमाकों की वजह से कुछ कुछ गुस्से में, कुछ कुछ परेशां और बहुत ज्यादा तड़प में थे, तब आंसू बहाती मुंबई और मुंबईकरो के जख्मों पर कांग्रेस के युवराज राहुल गांधी नमक चस्पा कर रहे थे। राहुल गांधी ने मुंबई हमलों पर ऐसा बयान दिया है, सुन कर ही नसों में उबाल आता है, कोई बाहरी कहे तो आप मारपीट पर उतर आयेंगे, पर ये सज्जन तो देश पर राज करने वाली पार्टी के युवराज है । उनके मुताबिक आतंकी हमलों को पूरी तरह से रोका नहीं जा सकता और एक दो धमाके तो हो ही सकते हैं। अमेरिका वाले जब ईराक और अफगानिस्तान में अपने नागरिको पर हमले नहीं रोक पाए तो हम कहाँ से रोके। राहुल ने साथ में ये भी कहा कि हम बहुत से हमले रोक लेते हैं लेकिन उसके बाद भी एक दो हमले हो जाते हैं तो क्या हुआ।

असंवेदनशीलता और मुर्खता का अद्भुत संगम है श्री गाँधी का ये बयान। शर्म भी नहीं आती उन्हें ये कहने में की "साल में एक-दो हमले तो हो ही सकते हैं, ऐसे हमले रोकना मुश्किल काम है" । चूँकि काम मुश्किल है इसलिए कांग्रेस इस काम को करेंगी ही नहीं। हमले होते है तो होते रहें। मरते रहेंगे लोग। मुंबई में शाम को जब ये हमले हुए तो मै शिफ्ट में था। चारो तरफ खून, लाशो के बिखरे हिस्से और डरे सहमे लोगो के विजुअल्स मैंने आते देखे। न जाने ऐसे कितने दृश्य थे जो इतने वीभत्स थे कि उन्हें चैनल पर चलने से रोक दिया गया। सोचिये की उन माँ बाप पर क्या गुज़रती होगी है जब सुबह काम पर घर से निकले उनके बेटे की लाश टुकड़ों में आती है। कैसे वो एक बिखरे शरीर को जोड़ कर कहता होगा की यही है मेरा बेटा। चेहरा पहचान में नहीं आता होगा तो कभी अलग पड़े हाथ की घडी से तो कभी बिखरे पैर पर पड़े बचपन के किसी निशान से पहचानता होगा की हाँ ये जो टुकड़े पड़े है, इन्हें जोड़ो तो मेरा बेटा बनेगा। ………….बेवकूफ आदमी, समझने को तैयार ही नहीं है की "साल में एक-दो हमले तो हो ही सकते हैं"

अब जानिये की उनके गुरु गोविन्द दिग्विजय सिंह क्या कहते है। दिग्गी के मुताबिक “सवा अरब लोगों के देश में ऐसा हो जाता है। कम से कम हम पाकिस्तान की तुलना में बेहतर हैं, वहां हर हफ्ते धमाके होते रहते है। दिग्गी ने ये शानदार सफाई दी अपने चेले राहुल को बचाने के लिए। अब चूँकि राहुल ने ही कह दिया कि एक दो हमले तो हो ही सकते हैं, तो हो सकते हैं। दिग्विजय सिंह की महिमा पर तो मै सालो से कुर्बान हूँ। ये वही सज्जन है जो "लादेन जी" कहते है। अब ये पाकिस्तान से बेहतरी पर ताली पीट रहे हैं। उस पाकिस्तान से जहां प्रधानमंत्री को लात मार कर भगा दिया जाता है, और सेना जब चाहे सत्ता पर काबिज हो जाती है। राहुल गांधी की शान में कसीदे पढ़ते हुए दिग्विजय सिंह को कठ्मुल्लाओ के हाथ में बंधक पाकिस्तानी लोकतंत्र से भारत की तुलना करते हुए शर्म भी नहीं आई।

गृहमंत्री पी चिदंबरम मुंबई धमाकों पर बहाना बनाने के अलावा बेतुकी दुलीलें भी दे रहे हैं। चिंदबरम का कहना है कि पूरी दुनिया में होती रहती हैं आतंकी घटनाएं। इनका कहना है कि 31 महीने में मुंबई में कोई धमाका नहीं हुआ और बुधवार को जहां धमाके हुए वो संकरी गलियां हैं। खुश हो जाइए मिस्टर चिदंबरम, पर 27 साल के प्रभात के परिवार वालो का क्या । प्रभात दोस्तों से मिलने ओपेरा हाउस गया था। शादी महज 8 महीने पहले हुई थी। ब्लास्ट में वो नहीं रहा, पर चिदंबरम साहब की उपलब्धि है की 31 महीने में मुंबई में कोई धमाका नहीं हुआ। बात भी खुश होने वाली है की आखिर आमची मुंबई अभी तक काबुल नहीं हुई है।

एक और नेता है, नाम है सत्यब्रत चतुर्वेदी, इनका कहना है की "कौन सा पहाड़ टूट पड़ा है" । बात तो सच है, केंद्र में कांग्रेस, महारष्ट्र में कांग्रेस, और मुंबई में लगातार बम धमाके। इस बार के धमाको में तो 50 लोग भी नहीं मरे, फिर कौन सा पहाड़ टूटा पड़ा है।

ताज़ा ताज़ा सामने आये है सुबोध कान्त सहाय। बुधवार की शाम जब मुंबई में एक के बाद एक तीन धमाके हुए थे, उसी शाम दिल्ली में केंद्रीय पर्यटन मंत्री सुबोधकांत सहाय दिल्ली के पांच सितारा होटल में रैंप पर कैटवॉक देख रहे थे। कम से कम इनको ऐश्रवर्या राय से सीखना चाहिए जिसने धमाके की खबर लगते ही दिल्ली में फ्रांस की तरफ से दिए गए सम्मान के लिए आयोजित समारोह को टलवा दिया। फैशन शो के बाद जब इनसे मुंबई धमाको के बारे में पूछा गया तो सरकार कहते की " जिंदगी चलती रहनी चाहिए"। शाबाश सहाय साहब, क्या बात है। आखिर जिंदगी जिंदादिली का नाम है, मुर्दादिल तो वो मुंबई वाले है और वो साले मरते रहेंगे ।

तो जनाब ऐसा है की आप जनता है और आप के नसीब में है मरना।

आप मरते रहिये, पर खुश रहिये।

क्यूंकि ---जिंदगी चलती रहनी चाहिए
क्यूंकि ---साल में एक-दो हमले तो हो ही सकते हैं...
क्यूंकि ---हम पाकिस्तान की तुलना में बेहतर हैं, वहां हर हफ्ते धमाके होते रहते है
क्यूंकि ---कौन सा पहाड़ टूट पड़ा
क्यूंकि ---पूरी दुनिया में होती रहती हैं आतंकी घटनाएं।

Friday, May 27, 2011

Movie Review – कुंग फू पांडा 2

हॉलीवुड की फिल्मों में एनीमेशन फिल्मो की खास जगह है, ये फिल्मे न केवल बड़े बजट की होती है बल्कि कमाई के मामले में भी काफी आगे निकलती है, ज़ाहिर सी बात है की इन फिल्मो के निशाने पर बच्चे ही होते है । हालाँकि ये प्रयोग पिछले दो- तीन सालो से भारत में भी शुरू हुआ है मगर यहाँ इसे रफ़्तार पकड़ने में अभी वक़्त लगेगा. इस हफ्ते भारतीय दर्शको के सामने है कुंग फू पांडा 2 . इस सीरीज की पहली फिल्म कुंग फू पांडा 2008 में रिलीज हुई थी। और ये काफी बड़ी हिट साबित हुई थी, एक बार फिर से कुंग फू में माहिर पांडा पॉल दर्शको का मनोरंजन करने आ गया है

कहानी
ड्रैगन वारियर के नाम से मशहूर हो चुके पांडा पो के गुरु को अभी भी नहीं लगता की वो पूरी तरह से तैयार है, पो को ये भी पता चलता है की वो आज तक जिन्हें अपना पिता समझता था वो उसके पिता है ही नहीं , बल्कि उसका असल परिवार तो चीन से है, इसी बीच खबर आती है की चीन में शैतान पीकॉक ने कब्ज़ा कर लिया है और वो कुंग फू को ख़त्म करने पर तुला है, ड्रैगन वारियर पांडा पो के गुरु उसे उसकी टीम के साथ कुंग फू को बचाने के लिए चीन भेजते है, और फिर शुरू होती है पो और पीकॉक के बीच एक बड़ी लड़ाई जो काफी कुछ "पर्सनल" भी है, और इसमे जीत अच्छाई की होती है


किरदार और फिल्म


बड़े बजट की इस अनिमेटेड फिल्म में बड़े बड़े कलाकारों ने आवाज़ भी दी है, ड्रैगन वारियर पांडा पो को जैक ब्लैक तो उसकी सबसे खास साथी टाईग्रेस को एन्जिलिना जॉली ने आवाज़ दी है, इसी टीम में शामिल मंकी की आवाज़ बने जैकी चैन तो शरारती वाइपर को आवाज़ दी लूसी लू ने. फिल्म के विलेन पीकॉक की आवाज बने गैरी ओल्डमैन ….. जब इतने बड़े नाम शामिल हो तो ज़ाहिर सी बात है की फिल्म की स्टार पावर बढ़ जाती है.. फिल्म 3डी है और कई बार तो बेहद खूबसूरत अहसास देती है, एक दृश्य में पांडा ड्रैगन्स का पीछा करता है जो 3 डी की वजह से बेहद खूबसूरत और जीवंत लगता है. खास बात ये है की फिल्म में 3 डी का बेजा इस्तेमाल कहीं नहीं हुआ है, फिल्म की सादगी और बचपने को सम्हाल कर रखा गया है, 3 डी कला को एक नया विस्तार देती है, झरने, पेड़, पहाड़, सब आपके करीब आ जाते है ऐसे में एनिमेटेड करेक्टर भी आपको कहानी में उसी तरह ले जाते है जैसे की और फिल्मो के किरदार

जब भी बच्चो को ध्यान में रख कर फिल्म बनायीं जाती है तो उसमे कोशिश की जाती है की कामेडी की शक्ल में कुछ अक्ल दी जाये और ये फार्मूला हमेशा कामयाब भी होता है, फिल्म में कई जगहे आपको बरबस हंसी आ ही जाती है, ख़ास कर पांडा पो की खाने पीने की आदते और उसके बढ़ते मोटापे से परेशान उसके साथीयो की मासूम बाते ….हालीवुड में ये फिल्म एक हिट साबित हो रही है, देखने वाली बात ये है की अच्छी फॅमिली फिल्मो का अकाल झेल रहे भारतीय दर्शको को ये फिल्म कितना पसंद आएगी

Thursday, May 19, 2011

प्यार का पंचनामा

"लव आजकल" पर आजकल तमाम फिल्मे लगातार बन रही है, किसी में स्टोरी नयी- तो किसी में कलाकार, पर ट्रीटमेंट लगभग सबका एक ही जैसा रहता है, प्यार का पंचनामा इस मामले में जुदा है, फिल्म की असल ताकत है कहानी का ट्रीटमेंट और रियल लाइफ से उसकी करीबी, हालाँकि फिल्म पारिवारिक बिलकुल भी नहीं है, पर आजकल "यूथ फोकस" फिल्मे इसी तरह बनती है और अगर उसमे कामेडी अच्छी लगी तो चलती भी है, प्यार का पंचनामा भी इसी किस्म की फिल्म है

फिल्म में दिखाया गया है की प्यार में तभी तक मज़ा है जब तक वो हो ना जाए। कुछ दिनों बाद ही लगने लगता है कि ये कहाँ फंस गए, बेवजह की उलझाने परेशान करने लगती है और आप वो नहीं रहते जो आप है. कहानी है तीन दोस्तों रजत, चौधरी और निशांत की जो महानगरो में रहने वाले और मल्टीनेशनल कंपनियो में काम करने वालो नवजवानों की तरह बेतकल्लुफ अंदाज़ में रहते है और आपस में काफी खुश भी नज़र आते है, हालाँकि तीनो की जिंदगी में लड़किया नहीं है, उन्हें इस बात का अफ़सोस भी है पर जब उनकी जिंदगी में लडकियां आती है तो उनकी जिंदगी अफ़सोस हो जाती है, शुरुवात में तो सब कुछ ठीक ही लगता है पर धीरे धीरे लड़कियां उन पर हावी हो जाती है, कभी लडकियों के ताने उनकी जिंदगी मुश्किल करती है, तो कभी दखलंदाज़ी, तो कभी बेपरवाही तो कभी मैच के बजाय शॉपिंग बैग्स उठाए घूमना पड़ता है, और फिर धीरे धीरे वो अपने आपको इस प्यार से जिसने उनकी जिंदगी को जहन्नुम बना दिया से आज़ाद कर लेते है।

वाइकॉम 18 मोशन पिक्चर्स और वाइड फ्रेम पिक्चर्स के बैनर तले बननेवाली इस फिल्म में सारे नए कलाकार है और सबने अच्छा काम किया है लेकिन सबसे ज्यादा तालियाँ बटोरी दिव्येंदु शर्मा ने जिन्होंने फिल्म में लिक्विड का किरदार निभाया है , एक बार फिर से बात फिल्म के ट्रीटमेंट की, कहानी भले ही दिल्ली की हो, पर ट्रीटमेंट इस लिहाज़ से है की आज कल का युवा वर्ग चाहे वो किसी भी महानगर से हो उससे अपने आपको जोड़ सकता है, और इसका क्रेडिट जाता है फिल्म के डायरेक्टर लव रंजन और निर्माता अभिषेक पाठक को.

हालाँकि फिल्म का म्युज़िक साधारण है, गाने कुछ खास नहीं है, और लोकेशंस ज़्यादातर दिल्ली और गोवा की है, फिल्म के खिलाफ एक बात और जो जाएगी वो इसका फैमिली फिल्म न होना, फिल्म में जगह जगह गाली गलौज और द्विअर्थी संवाद है, इसलिए शायद लोग इसे परिवार के साथ न देखने जाये. पर फिल्म की सबसे बड़ी खासियत ये है की जितने भी युवा इस फिल्म को देखने जायेंगे उन्हें कई सारे सीन अपनी जिंदगी के नज़र आयेंगे- वो भी कामेडी के अंदाज़ में, ज़ाहिर सी बात है की तकलीफे जब दूसरे की हो और उसे कामेडी के अंदाज़ में दिखाया जाये तो हंसी आ ही जाती है.

कुल मिलकर इस चिलचिलाती गर्मी में अगर आपके पास करने को कुछ खास नहीं है, आईपीएल के मैच अब आपको बोर करने लगे है, तो प्यार का पंचनामा एक बेहतर विकल्प हो सकता है

Sunday, February 13, 2011

फिल्म समीक्षा - पटियाला हाउस

जबकि सारे देश में धीरे धीरे वर्ल्ड कप का फीवर बढ़ रहा है तो ऐसे में अक्षय कुमार इस शुक्रवार क्रिकेट पर बनी अपनी फिल्म पटियाला हाउस लेकर दर्शको के बीच आये है, लेकिन अगर आपको लगे कि फिल्म में केवल क्रिकेट ही क्रिकेट है तो आप गलत है, फिल्म में क्रिकेट की नीव पर रिश्तो या यूँ कहे मेलोड्रामा की इमारत खड़ी की गयी है

कहानी कुछ यूँ है की कालेज में ही नेशनल लेवल पर अपनी पहचान बना चुके परगट सिंह कालों नि अक्षय कुमार को उसके बाऊ जी ऋषि कपूर उस वक़्त क्रिकेट छुडवा देते है जब वो केवल 17 साल का था, वजह थी अंग्रेजो से उनकी नफरत, वो नहीं चाहते है कि उनका बेटा इंग्लैण्ड के लिए खेले. परगट उर्फ़ गट्टू चुपचाप उनकी बात मान अपने सपनो का गला घोंट देता है. पर वक़्त एक बार फिर उसे मौका देता है. क्या इस बार वो क्रिकेट को चुनेगा, ये मौका उससे ज्यादा उसके परिवार वालो के लिए ख़ास था क्यूंकि सब अपनी जिंदगी में कुछ न कुछ अलग करना चाहते थे. पर बाऊ जी के आगे बेबस थे. इस बार क्या होगा, क्या गट्टू क्रिकेट खेलेगा, क्या वो कामयाब होगा. यही फिल्म कि कहानी है

बात करे अगर एक्टिंग कि तो इस बार अक्षय कुमार कुछ अलग है, अपनी पिछली हर फिल्म के मुकाबले वो यहाँ कम बोलते है और लाउड होने से बचे है. निश्चित तौर पर अक्षय कुमार को लगातार एक जैसे कॉमेडी किरदारों में देखकर हम सभी थक चुके थे, इसलिए इसे एक खुशखबरी के तौर पर लीजिये. पर कई बार बेवजह उनका लटका मुंह देखना भी खलता है, चुलबुली अनुष्‍का शर्मा खुबसूरत भी और एक्टर भी इसलिए अपना काम वो बखूबी कर ले जाती है, फिल्म में वो एक ताजगी के तौर पर है, जहाँ ऋषि कपूर ने रंग जमाया है वहीं डिम्पल कपाडिया के लिए ज्यादा कुछ नहीं था, बाकियों की बात रहने दे क्यूंकि फिल्‍म में छोटे छोटे इतने सारे किरदार हैं कि उनके चेहरे भी याद रखना मुश्किल है

फिल्म का म्युज़िक अच्छा है और गाने चार्ट बस्टर पर काफी छाये हुए है, इसके अलावा क्रिकेट फैन्स के लिए हिंदी फिल्म में सायमंड्स, अकमल, नासिर हुसैन, ग्राहम गूच और करेन पोलार्ड को देखना भी एक मज़ेदार अनुभव होगा.

निर्देशक निखिल आडवाणी ने कहानी में पारिवारिक नाटक के हिसाब से हर वो मसाला डाला है जो आपको पुराने जमाने की मेलोड्रामा की याद दिलाएगा, इसलिए गुज़ारिश यही है कि अगर आप फिल्म देखते हुए रोते है तो अपने साथ टिसू पेपर लेकर ज़रूर जाए. मुझे पटियाला हाउस वीकएंड पर परिवार के साथ जाकर देखने वाली फिल्म लगी, तो अगर आप बहुत दिनों से बेसिर पैर की कामेडी और गाली गलौच से भरा बोरिंग रियलिस्टिक सिनेमा देख कर थक गए हो तो पटियाला हाउस की सैर कर सकते है. मैं ‘पटियाला हाउस’ को पांच में तीन अंक देता हूं।

आखिर बात- विश्वास मानिये फिल्म के क्लाइमेक्स में अक्षय कुमार अपनी यार्कर से एंड्रयू सायमंड्स को बोल्ड कर देते है. मेलोड्रामा का स्वागत है