बहुत दिनों के बाद एक
बार फिर से “रोड टू संगम” देखने का मौका मिला । मेरी नज़र में ये “साम्प्रदायिकता”
के खिलाफ बनी सबसे बेहतरीन फिल्मो में से एक है । जहाँ तक मुझे याद आता है इसकी रिलीज़ माय नेम इज खान
के आसपास ही हुई थी जो काफी हद तक इसी तरह के धार्मिक कट्टरपन के खिलाफ थी। माय नेम
इज खान साधारण होने के बाद भी काफी सुर्खिया और शोहरत बटोर ले गयी जबकि रोड टू
संगम का जिक्र भी नहीं हुआ । जाहिराना तौर पर इसके पीछे स्टार पावर और बैनर का एक
बड़ा योगदान था। इसी ख्याल से सोचा कि एक बार फिर से इस फिल्म के बारे में बात हो
जाए । फिल्म गाँधी के मूल्यों और उसके प्रभाव को एक नए अंदाज़ में लिए हुए है।
फिल्म की असली ताक़त
फिल्म की कहानी और अभिनय है। ‘रोड
टू संगम’
की कहानी इलाहाबाद
के एक बड़े मैकेनिक हशमत उल्लाह की है जिसके पास उस ट्रक का इंजन रिपेयर होने के
लिए आता है जिसमें कभी महात्मा गांधी की अस्थियों को इलाहाबाद के संगम पर विसर्जित
करने के लिए ले जाया गया था। लेकिन शहर के हालात बिगडे हुए है। कुछ दिन पहले हुए एक
बम धमाके की जांच करते हुए पुलिस शक के आधार पर कुछ मुस्लिम युवकों को पकड़ लेती है।
सियासत तो जैसे ताक में बैठी थी - हशमत को
इलाके के मौलवी और कुछ मुस्लिम नेता उस इंजन की मरम्मत करने से रोकते है। आश्चर्य
इस बात का कि बापू गांधी भी हिन्दू हो जाते है। अब हशमत उल्लाह के सामने सबसे बड़ी
मुश्किल है कि क्या वो उस इंजन को ठीक करे
जिससे किसी हिंदू की अस्थियों को लाया गया था या अपनी क़ौम और उसके दबंगों का साथ
देते हुए मरम्मत करने से इनकार कर दे। पूरी फिल्म इसी उधेड़बुन और उसके बाद लिए गए
फैसले को बयान करती है।
जहाँ तक अभिनय की
बात है तो वर्तमान समय के दो सबसे बेहतरीन अदाकार परेश रावल और ओमपुरी इस फिल्म की
जान है और दोनों ने बहुत शानदार काम किया है। एक आम मुसलमान की उधेड़बुन और फिर अंतरात्मा
की बात सुनने वाले मैकेनिक का किरदार परेश रावल ने बड़ी शिद्दत से निभाया है। यूँ
तो रावल ने तमाम यादगार भूमिकाये की है लेकिन इस फिल्म को मै अब तक की उनकी सबसे बेहतरीन फिल्मो में से एक मानता
हूँ। सियासत में जकड़े, चिडचिडे, और अपने ही बुने डर वाले रईस मुसलमान के किरदार
में ओमपुरी भी लाजवाब है। बानगी में उनका एक संवाद – “हम मुसलमानों ने आज़ादी के
वक़्त जो चुनना था वो चुन लिया, न
जाने ये देश हमें कब चुनेंगा"। पवन मल्होत्रा एक फिरकापरस्त मौलवी के किरदार
में है और खास किस्म के संवाद खास अंदाज़ में बोलने का उनका स्टाइल अनूठा है। बाकी के
कलाकार बिलकुल आस-पड़ोस के नज़र आते है और ये फिल्म की खासियत है। फिल्म में कुछ
द्रश्यो में महात्मा गाँधी के पौत्र तुषार गाँधी भी है जो अपने ही किरदार में है। ख़ास
जिक्र निर्देशक अमित राय का जिन्होंने बड़ी खूबसूरती से आम आदमी के भारत का दर्द
और उसकी खुशियाँ को दिखाया है। तकलीफ इस बात की है आम आदमी के साझे दुःख दर्द और
उसकी मुस्कराहट को बयां करती ये फिल्म उस तक पहुँच ही नहीं पायी।
जिस चीज़ ने मुझे
सबसे ज्यादा छुवा वो है फिल्म का फलसफा। ज़माने के शोर और अंतरात्मा की आवाज़ के
बीच आप किसे चुनते है फिल्म में यही बयां किया गया है। हर तरफ लोग आपको अपने हिसाब
से समझा रहे है, ललचा रहे है और डरा भी रहे है ताकि आप उनकी सोच के साथ हो ले। पर
आप क्या करेंगे ? ये कैसे तय होगा की सही क्या है, गलत क्या है? नफरत किस किस से
करे, कितनी करे और कब तक करते रहे? हमारे बाप दादाओ ने हमें जैसा भी हिन्दुस्तान
दिया क्या हम उससे बेहतर अपनी अगली पीढ़ी को नहीं दे सकते? ये सारे सवालो और जवाबो
की फिल्म है “रोड टू संगम”। फिल्म में परेश रावल कहते है कि "अल्लाह अपने
पैगम्बर बार बार नहीं भेजता, जब भेजे तो हमें उस पर अमल करना चाहिए" (ऐसा वो
गाँधी के बारे में बोलते है)। आप गांधी को मानिए या न मानिए मगर इंसानियत से कौन
इनकार कर सकता है? ऐसा कैसे हो सकता है की एक ट्रेन में सिर्फ वही लोग हो जो आप है
? दुनिया की ख़ूबसूरती इसी में है की इसमें तमाम रंग है और सब साथ है।
अगर आप गंभीर फिल्मो
के शौक़ीन है और So
called off beat फिल्म भे देख लेते
है तो ज़रूर देख लीजियेगा .....
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