Tuesday, July 2, 2013

जासूस ने उडाये होश

           अपनी बहुचर्चित फिल्म मिशन इम्पॉसिबल में टॉम क्रूज़ कहते है कि आज जासूसों की वो शान नहीं रही जो यूएसए और यूएसएसआर के कोल्ड वार के ज़माने में थी, कई बार देश को उसके अपने ही जासूस से खतरा लगता है। फिलहाल ऐसे ही एक जासूस ने अमेरिका के होश फाख्ता कर रखे है। इसका नाम है एडवर्ड स्नोडेन जो अमेरिका के पूर्व सीआईए एजेंट है। एनएसए के पूर्व कॉन्ट्रेक्टर के तौर पर काम कर रहे स्नोडेन ने अमेरिका के अंतरराष्ट्रीय स्तर पर जासूसी कार्यक्रम का भंडाफोड़ किया है। ऐसा करने के बाद वह अमेरिका से भाग गए और फिलहाल मॉस्को के हवाई अड्डे पर हैं। स्नोडेन ने भारत सहित दुनिया के तमाम मुल्कों से शरण मांगी है लेकिन अमेरिकी प्रशासन ने सभी देशों को स्पष्ट चेतावनी दी है कि स्नोडेन को शरण नहीं दी जाए, क्योंकि वह जासूसी तथा गोपनीय दस्तावेजों को लीक करने के आरोपों में अमेरिका में वांछित है। जाहिर तौर पर किसी भी देश से एडवर्ड स्नोडेन को कोई उत्साहजनक प्रतिक्रिया नहीं मिली। ताजा घटनाक्रम में स्नोडेन ने अपनी शरण का पहला औपचारिक आवेदन इक्वाडोर से किया है जिसमे उन्होंने आवेदन पत्र के साथ ऐसे दस्तावेजों को भी जोड़ा है जिसमे स्नोडेन ने उन्हें अमेरिका में होने वाले खतरों का जिक्र किया है।

                    हालाँकि दुनिया के सामने अपने उदार चेहरे को दिखाते हुए अमेरिका ने कहा है कि स्नोडेन के मामले की निष्पक्ष सुनवाई होगी और बतौर अमेरिकी नागरिक स्नोडेन अपने सभी अधिकारों को इस्तेमाल करने के अधिकारी होंगे लेकिन ये हर कोई समझ रहा है कि अमेरिका की वैश्विक स्तर पर रणनीति बनाने वाले कर्ताधर्ता इस वक़्त परेशान और डरे हुए है। इसे इस तरह समझ सकते है कि स्नोडेन ने शरण के लिए इक्वाडोर को किये गए आवेदनपत्र में लिखा है कि अमेरिका उन्हें अवैध तरीके से परेशान कर रहा है। स्नोडेन ने अपने आधिकारिक बयान में ओबामा के बारे में कहा है कि , “एक वैश्विक नेता को इस तरह की हरकत शोभा नहीं देती है. ये राजनीतिक दादागिरी के पुराने और घटिया हथकंडे हैं। उनका मकसद मुझे डराना नहीं हैं बल्कि मेरा साथ देने वालों को चेतावनी देना है। मैंने कोई अपराध नहीं किया है, इसके बावजूद उसने एकतरफा निर्णय लेते हुए मेरा पासपोर्ट रद्द कर दिया और मुझे ऐसा व्यक्ति बना दिया जिसका कोई देश नहीं है।'

                    अब सवाल ये है कि आखिर स्नोडेन ने ऐसा क्या किया है कि अंकल सैम की नींद हराम है।  दरअसल पिछले महीने खुफिया जानकारियो से भरे दस्तावेज़ लेकर स्नोडेन हांगकांग भाग निकले और ऐसा माना जा रहा है कि उनके लैपटॉप में अमेरिकी एनएसए द्वारा दुनियाभर में किये गए फोन कॉल्स और इंटरनेट कम्युनिकेशन पर नजर रखे जाने सम्बन्धी गोपनीय सूचनाएं है। स्नोडेन पर अमेरिकी जासूसी कानून का उल्लंघन करने का आरोप है। सवाल ये है की आखिर स्नोडन ने ऐसा किया क्यूँ ? स्नोडन के मुताबिक उन्होंने ये खुलासे अंतरात्मा की आवाज़ पर किये। स्नोडन के मुताबिक जिस तरह अमेरिका दुनिया भर के तमाम संचार साधनों के जरिये देशो और उनकी गतिविधियों पर नज़र रखता है वो पूरी तरह से अवैध और अनैतिक है लेकिन जानकार इसके पीछे सिर्फ अंतरात्मा की आवाज़ ही नहीं बल्कि ये भी मान रहे है की कहीं से कुछ चिंगारी स्नोडन को जरूर मिली है जिसके चलते इस 30 वर्षीय अधिकारी ने पहले समाचार पत्रों को खबर लीक की और फिर एक मुकम्मल इंटरव्यू के जरिये पूरी दुनिया को बता दिया कि अमेरिका दुनिया के 38 देशो पर नज़र रख रहा है। अभी तक प्राप्त सूचना के मुताबिक सीआईए ने जिन 38 टारगेट की जासूसी की उसमें से भारतीय दूतावास भी एक था और स्नोडेन के पास इन सारे आपरेशन्स की जानकारी है। 

                  पर ऐसा नहीं है कि स्नोडेन पूरी तरह से अकेले पड गए हों। स्नोडेन के पक्ष में खुफिया जानकारीयो को उजागर करने वाली वेबसाईट विकिलीक्स खुल कर आई है। विकिलीक्स स्नोडेन के लिए राजनयिक स्तर पर काम कर रही है मसलन एडवर्ड स्नोडेन ने रूस में भी शरण मांगी है और उनकी ओर से यह निवेदन ब्रिटेन की नागरिक सारह हैरिसन ने किया है जो विकिलीक्स की सदस्य और क़ानूनी सलाहकार है। हालांकि जानकार स्नोडेन के खुलासे के पीछे चीन का भी खेल देख रहे है।अमेरिका एक लम्बे वक़्त से चीन पर इंटेलिजेंस घुसपैठ का आरोप लगाता रहा है। ऐसे में माना जा रहा है की स्नोडेन की अंतरात्मा के पीछे ड्रैगन भी हो सकता है। वहीं रूसी राष्ट्रपति ब्लादिमिर पुतिन ने भी इशारे किये है कि अगर स्नोडेन और खुलासे करना बंद कर दे तो रूस उनके शरण सम्बन्धी आवेदन पर विचार कर सकता है। 

                जहाँ तक भारत का प्रश्न है मनमोहन सरकार स्नोडेन के मामले में पड़ने के मूड में बिलकुल नहीं है और न ही इसमें किसी भी किस्म का फायदा है। पिछले कुछ वर्षो में भारत और अमेरिका के सम्बन्ध एक नयी उंचाई पर पहुंचे है। न केवल वाणिज्य और व्यापार बल्कि रक्षा आपूर्ति, आईटी सेक्टर और सांस्कृतिक स्तर पर भी भारत और अमेरिका एक दुसरे के काफी करीब आये है ऐसे में नयी दिल्ली स्नोडेन को शरण देकर अमेरिका के साथ रिश्तो को दांव पर हरगिज़ लगाना नहीं चाहेगा। 



Saturday, June 15, 2013

फिल्म समीक्षा ‘रोड टू संगम’....


बहुत दिनों के बाद एक बार फिर से “रोड टू संगम” देखने का मौका मिला । मेरी नज़र में ये “साम्प्रदायिकता” के खिलाफ बनी सबसे बेहतरीन फिल्मो में से एक है जहाँ तक मुझे याद आता है इसकी रिलीज़ माय नेम इज खान के आसपास ही हुई थी जो काफी हद तक इसी तरह के धार्मिक कट्टरपन के खिलाफ थी। माय नेम इज खान साधारण होने के बाद भी काफी सुर्खिया और शोहरत बटोर ले गयी जबकि रोड टू संगम का जिक्र भी नहीं हुआ । जाहिराना तौर पर इसके पीछे स्टार पावर और बैनर का एक बड़ा योगदान था। इसी ख्याल से सोचा कि एक बार फिर से इस फिल्म के बारे में बात हो जाए । फिल्म गाँधी के मूल्यों और उसके प्रभाव को एक नए अंदाज़ में लिए हुए है।

फिल्म की असली ताक़त फिल्म की कहानी और अभिनय है। रोड टू संगमकी कहानी इलाहाबाद के एक बड़े मैकेनिक हशमत उल्लाह की है जिसके पास उस ट्रक का इंजन रिपेयर होने के लिए आता है जिसमें कभी महात्मा गांधी की अस्थियों को इलाहाबाद के संगम पर विसर्जित करने के लिए ले जाया गया था। लेकिन शहर के हालात बिगडे हुए है। कुछ दिन पहले हुए एक बम धमाके की जांच करते हुए पुलिस शक के आधार पर कुछ मुस्लिम युवकों को पकड़ लेती है। सियासत तो जैसे ताक में बैठी थी -  हशमत को इलाके के मौलवी और कुछ मुस्लिम नेता उस इंजन की मरम्मत करने से रोकते है। आश्चर्य इस बात का कि बापू गांधी भी हिन्दू हो जाते है। अब हशमत उल्लाह के सामने सबसे बड़ी मुश्किल है कि क्या वो उस इंजन को ठीक  करे जिससे किसी हिंदू की अस्थियों को लाया गया था या अपनी क़ौम और उसके दबंगों का साथ देते हुए मरम्मत करने से इनकार कर दे। पूरी फिल्म इसी उधेड़बुन और उसके बाद लिए गए फैसले को बयान करती है।

जहाँ तक अभिनय की बात है तो वर्तमान समय के दो सबसे बेहतरीन अदाकार परेश रावल और ओमपुरी इस फिल्म की जान है और दोनों ने बहुत शानदार काम किया है। एक आम मुसलमान की उधेड़बुन और फिर अंतरात्मा की बात सुनने वाले मैकेनिक का किरदार परेश रावल ने बड़ी शिद्दत से निभाया है। यूँ तो रावल ने तमाम यादगार भूमिकाये की है लेकिन इस फिल्म को मै  अब तक की उनकी सबसे बेहतरीन फिल्मो में से एक मानता हूँ। सियासत में जकड़े, चिडचिडे, और अपने ही बुने डर वाले रईस मुसलमान के किरदार में ओमपुरी भी लाजवाब है। बानगी में उनका एक संवाद – “हम मुसलमानों ने आज़ादी के वक़्त जो चुनना था वो चुन लिया, न जाने ये देश हमें कब चुनेंगा"। पवन मल्होत्रा एक फिरकापरस्त मौलवी के किरदार में है और खास किस्म के संवाद खास अंदाज़ में बोलने का उनका स्टाइल अनूठा है। बाकी के कलाकार बिलकुल आस-पड़ोस के नज़र आते है और ये फिल्म की खासियत है। फिल्म में कुछ द्रश्यो में महात्मा गाँधी के पौत्र तुषार गाँधी भी है जो अपने ही किरदार में है। ख़ास जिक्र निर्देशक अमित राय का जिन्होंने बड़ी खूबसूरती से आम आदमी के भारत का दर्द और उसकी खुशियाँ को दिखाया है। तकलीफ इस बात की है आम आदमी के साझे दुःख दर्द और उसकी मुस्कराहट को बयां करती ये फिल्म उस तक पहुँच ही नहीं पायी।

जिस चीज़ ने मुझे सबसे ज्यादा छुवा वो है फिल्म का फलसफा। ज़माने के शोर और अंतरात्मा की आवाज़ के बीच आप किसे चुनते है फिल्म में यही बयां किया गया है। हर तरफ लोग आपको अपने हिसाब से समझा रहे है, ललचा रहे है और डरा भी रहे है ताकि आप उनकी सोच के साथ हो ले। पर आप क्या करेंगे ? ये कैसे तय होगा की सही क्या है, गलत क्या है? नफरत किस किस से करे, कितनी करे और कब तक करते रहे? हमारे बाप दादाओ ने हमें जैसा भी हिन्दुस्तान दिया क्या हम उससे बेहतर अपनी अगली पीढ़ी को नहीं दे सकते? ये सारे सवालो और जवाबो की फिल्म है “रोड टू संगम”। फिल्म में परेश रावल कहते है कि "अल्लाह अपने पैगम्बर बार बार नहीं भेजता, जब भेजे तो हमें उस पर अमल करना चाहिए" (ऐसा वो गाँधी के बारे में बोलते है)। आप गांधी को मानिए या न मानिए मगर इंसानियत से कौन इनकार कर सकता है? ऐसा कैसे हो सकता है की एक ट्रेन में सिर्फ वही लोग हो जो आप है ? दुनिया की ख़ूबसूरती इसी में है की इसमें तमाम रंग है और सब साथ है।

अगर आप गंभीर फिल्मो के शौक़ीन है और So called off beat फिल्म भे देख लेते है तो ज़रूर देख लीजियेगा .....

Wednesday, May 15, 2013

संजय दत्त के मामले को समझने के लिए


1.    सुप्रीम कोर्ट ने 1993 मुंबई धमाके के मामले में अवैध हथियार(एके56 और एक 9mm पिस्टल) रखने के जुर्म में संजय दत्त को पांच साल की सजा सुनाई है।
2.    संजय दत्त ने 15 अप्रैल को सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर कर समर्पण का समय छह महीने और बढ़ाने का अनुरोध किया था।
3.    सुप्रीम कोर्ट 16 अप्रैल  को अभिनेता संजय दत्त की याचिका पर सुनवाई करते हुए चार हफ्तों का वक्त दिया था
4.    10 मई 2013 को सुप्रीमकोर्ट ने संजय दत्त की पुनर्विचार याचिका को खारिज किया।
5.    14 मई 2013- संजय दत्त के दो प्रड्यूसर्स की संजय दत्त को फिल्म पूरी करने के लिए कुछ समय देने की मांग को सुप्रीमकोर्ट ने खारिज किया। इसके बाद ये पूरी तरह तय हो गया कि संजय दत्त को सरेंडर करना होगा।

कब-कब जेल गए संजय - 1993 मुंबई बम धमाकों के मामले की सुनवाई विशेष टाडा अदालत में 30 जून 1995 को शुरू हुई. करीब 12 साल बाद 18 मई 2007 को इस मामले की सुनवाई खत्म हुई..संजय दत्त टाडा के आरोपों से तो बरी हो गए लेकिन उन्हें आर्म्स एक्ट के तहत 6 साल की सजा सुनाई गई थी.

पहली बार 19 अप्रैल 1993 से 5 मई 1993, 18 दिन -  संजय दत्त 19 अप्रैल 1993 को जेल गए थे. लेकिन 18 दिन के अंदर ही उनको जमानत भी मिल गई थी. 5 मई 1993 को संजय दत्त को जमानत मिली.

दूसरी बार 4 जुलाई 1994 से 16 अक्टूबर 1995, 14 महीने 18 दिन - 4 जुलाई 1994 को संजय दत्त को दूसरी बार जेल जाना पड़ा. अदालत ने उनकी जमानत रद्द कर दी थी जिसके बाद उन्हें जेल जाना पड़ा.
दूसरी बार उन्हें सबसे लंबी अवधि के लिए जेल काटनी पड़ी. 18 अक्टूबर 1995 को उन्हें जेल से रिहाई मिली.

तीसरी बार 31 जुलाई 2007 से 22 अगस्त 2007, 22 दिन - 1997 में उन्हें तीसरी बार फिर जेल जाना पड़ा. 31 जुलाई को वो तीसरी बार जेल गए और 22 दिन जेल में रहने के बाद 22 अगस्त को उनकी रिहाई हुई.

चौथी बार 22 अक्टूबर 2007 से 29 नवंबर 2007, 1 महीना 18 दिन - 22 अक्टूबर को यानी दो महीने बाद ही उन्हें चौथी बार जेल जाना पड़ा.

संजय दत्त अब तक कुल 17 महीने 6 दिन जेल में बिता चुके हैं


इस साल संजय दत्त की रिलीज़ होने वाली फिल्में
1.    एस के रविकुमार की 'पुलिसगिरी (5July)
2.    अपूर्व लखिया की 'जंजीर (June 2013)(प्रियंका चोपड़ा)
3.    धर्मा प्रोडक्‍शन(करन जौहर) की 'उंगली (6 September 2013)

2014 में संजय दत्त की रिलीज़ होने वाली फिल्में
1.    राजकुमार हीरानी की 'पी के' (Peekay) (December 25, 2013)(आमिर खान, अनुष्का के साथ दिखेंगे संजय)
2.    विधु विनोद चोपड़ा की मुन्नाभाई चले दिल्ली रिलीज होनी हैं.(मुन्नाभाई सीरीज की तीसरी फिल्म)


1993 के मुंबई धमाके: कब, क्या हुआ था

12 मार्च 1993 के मुंबई धमाके - 257 लोगों की मौत, 713 लोग घायल
1.    पहला धमाका-दोपहर 1.30 बजे, मुंबई स्टॉक एक्सचेंज
2.    दूसरा धमाका-दोपहर 2.15 बजे, नरसी नाथ स्ट्रीट
3.    तीसरा धमाका-दोपहर 2.30 बजे, शिव सेना भवन
4.    चौथा धमाका-दोपहर 2.33 बजे,एयर इंडिया बिल्डिंग
5.    पाँचवा धमाका-दोपहर 2.45 बजे,सेंचुरी बाज़ार
6.    छठा धमाका-दोपहर 2.45 बजे,माहिम
7.    सातवाँ धमाका-दोपहर 3.05 बजे,झावेरी बाज़ार
8.    आठवाँ धमाका-दोपहर 3.10 बजे,सी रॉक होटल
9.    नौवाँ धमाका-दोपहर 3.13 बजे,प्लाजा सिनेमा
10. दसवाँ धमाका-दोपहर 3.20 बजे,जुहू सेंटूर होटल
11. ग्यारवाँ धमाका-दोपहर 3.30 बजे,सहार हवाई अड्डा
12. बारहवाँ धमाका-दोपहर 3.40 बजे,एयरपोर्ट सेंटूर होटल

कब-कब क्या-क्या हुआ
1.    12 मार्च 1993 को मुंबई में सिलसिलेवार 12 जगहों पर हुए धमाकों में 257 लोग मारे गए थे जबकि 713 लोग घायल हुए थे. बॉम्बे स्टॉक एक्सेंज की 28-मंज़िला इमारत की बेसमेंट में दोपहर 1.30 बजे धमाका हुआ जिसमें लगभग 50 लोग मारे गए थे. इसके आधे घंटे बाद एक कार धमाका हुआ और अगले दो घंटे से कम समय में कुल 13 धमाके हो चुके थे. करीब 27 करोड़ रुपए की संपत्ति को नुकसान पहुंचा था.
2.    4 नवंबर 1993 में 10,000 पन्ने की 189 लोगों के खिलाफ प्रार्थमिक चार्जशीट दायर की गई थी.
3.    19 नवंबर 1993 में यह मामला केंद्रीय जांच ब्यूरो (सीबीआई) को सौंप दिया गया था.
4.    19 अप्रैल 1995 को मुंबई की टाडा अदालत में इस मामले की सुनवाई आरंभ हुई थी. अगले दो महीनों में अभियुक्तों के खिलाफ आरोप तय किए गए थे.
5.    अक्तूबर 2000 में सभी अभियोग पक्ष के गवाहों के बयान समाप्त हुए थे.
6.    अक्तूबर 2001 में अभियोग पक्ष ने अपनी दलील समाप्त की थी.
7.    सितंबर 2003 में मामले की सुनवाई समाप्त हुई थी.
8.    सितंबर 2006 में अदालत ने अपने फैसले देने शुरु किए.
9.    इस मामले में 123 अभियुक्त हैं जिनमें से 12 को निचली अदालत ने मौत की सज़ा सुनाई थी.
इस मामले में 20 लोगों को उम्र कैद की सज़ा सुनाई गई थी जिनमें से दो की मौत हो चुकी है और उनके वारिस इस मुकदमा लड़ रहे हैं.
इनके अलावा 68 लोगों को उम्र कैद से कम की सज़ा सुनाई गई थी जबकि 23 लोगों को निर्दोष माना गया था.
10. नवंबर 2006 में संजय दत्त को पिस्तौल और एके-56 राइफल रखने का दोषी पाया गया था. लेकिन उन्हे कई अन्य संगीन मामलों में बरी किया गया था.
11. नवंबर 1, 2011 को सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई शुरु हुई थी जो दस महीने चली.
12. अगस्त 2012 में सुप्रीम कोर्ट ने अपना फैसला सुरक्षित रखा था




Thursday, May 9, 2013

पाकिस्तान चुनाव – बदलाव की बयार


         मई का महीना पाकिस्तान के लिए कुछ ज्यादा ही गर्म है। पूरे पाकिस्तान में चुनाव प्रचार अपने शबाब पर है। पाकिस्तान के लिए ये चुनाव बहुत अहम् है क्यूंकि इस चुनाव को पाकिस्तान के भविष्य के लिए एक गेम चेंजरके तौर पर देखा जा रहा है और माना जा रहा है कि लोकतांत्रिक बदलाव के लिए ये चुनाव मील का पत्थर साबित होगा। पाकिस्तान के 66 साल के इतिहास में ऐसा पहली बार हुआ कि लोकतांत्रिक तरीक़े से चुनी गई सरकार ने पांच साल के अपने कार्यकाल को पूरा किया हो। ऐसे में इन चुनावो की महत्वत्ता अपने आप में बढ़ जाती है। 11 मई को होने जा रहे इन चुनावो में अवाम नेशनल और प्रांतीय एसेम्बली दोनों के लिए अपने नुमाइंदे चुनेगी।

        यूँ तो किताबी परिभाषा में किसी भी चुनाव में सबसे महत्वपूर्ण होता है चुनावी मुद्दे, राजनीतिक दल और उन दलों का नेतृत्व करते नेता। लेकिन ज़मीनी हकीकत में कई बार नेता पहले जाता है और मुद्दे पीछे छूट जाते है। पाकिस्तान के इन चुनावों में तीनो चीज़े आपस में गुथी हुई है। एक तरफ सत्तारूढ़ पीपीपी है जिसका सबसे बड़ा चेहरा ना नुकुर करते बिलावल और मरहूम बीवी बेनजीर की फोटो के आगे खड़े राष्ट्रपति ज़रदारी है तो दूसरी तरफ पाकिस्तानी राजनीति के दिग्गज नवाज़ शरीफ पीएमएल-एन की नुमाइंदगी कर रहे है। तीसरी ताक़त इमरान खान और उनकी तहरीक इंसाफ है जो नया पाकिस्तान बनाने का वायदा कर रही है। बाकी और भी दल मसलन मुत्ताहिदा कौमी मूवमेंट, अवामी नेशनल पार्टी, जमात--इस्लामी, जमीयत-उलेमा-इस्लाम है मगर माना जाता है की ये सारी पार्टियाँ तीनो बड़े दलों के साथ होने वाले गठबंधन का हिस्सा बनेंगी।

       सबसे पहले बात सत्तारूढ़ पीपीपी की - न्यायपालिका ने राष्ट्रपति आसिफ अली जरदारी पर चुनाव प्रचार करने से रोक लगा रखी है तो ऐसे में पार्टी की सबसे बड़ी उम्मीद उनके बेटे  बिलावल ही हैं। लेकिन चुनाव प्रचार के दौरान ही खबर ये आई कि ज़रदारी को बिलावल और  पाकिस्तान की पूर्व विदेश मंत्री हिना रब्बानी खार की नजदीकिया पसंद नहीं रही है। मतभेद इस कदर बढ़ गए कि बिलावल पाकिस्तान छोड़ कर चले गए थे। वैसे भी बिलावल ने कोई बड़ी चुनावी रैलियां नहीं की और उन्हें सिर्फ टीवी और अखबारों के विज्ञापन में दिवंगत मां बेनजीर भुट्टो की तस्वीरो के साथ ही देखा जा सकता है। पीपीपी 2008 से 2013 तक पाकिस्तान में किये गए अपने कामो पर वोट मांग रही है जो उसने सत्ता में रहते हुए आम जनता के लिए किये थे लेकिन लगता नहीं है की इससे कोई ज्यादा मदद मिलेगी। पीपीपी पर खराब तरीके से सरकार चलाने के अलावा भ्रष्टाचार के तमाम आरोप हैं। इसके अलावा तालिबानी धमकियो के चलते पार्टी ने कोई खास चुनाव प्रचार भी नहीं किया है। कुल मिलकर पीपीपी की हालत काफी कमज़ोर मानी जा रही है।

       विशेषज्ञ सबसे ज्यादा सम्भावनाये पीएमएल-एन की देख रहे है। पीएमएल-नून के सबसे बड़े नेता नवाज शरीफ और उनके भाई शाहबाज़ शरीफ है। पीएमएल-नून 1990 के दशक की अपनी उपलब्धियों का और पीपीपी गठबंधन के कमजोर प्रशासन का जिक्र अपने हर प्रचार में कर रही हैं। इस पार्टी का गढ़ है पंजाब जो पाकिस्तान में राजनीति से लेकर हर चीज़ में सबसे बड़ी ताक़त है। माना जा रहा है नवाज़ शरीफ को एंटी इन्कम्बैंसी फैक्टर का फायदा हो सकता है और वो अगले प्रधानमंत्री बन सकते है। वैसे उन्हें इस बार अपनी बेटी मरियम नवाज़ का भी साथ मिला है जिन्होंने अपने पिता के चुनावी क्षेत्र में प्रचार की ज़िम्मेदारी ख़ुद उठा ली है, काफी हद तक प्रियंका गाँधी की तरह जो रायबरेली में सोनिया का प्रचार देखती है।

         जहाँ तक बात इमरान खान और उनकी तहरीक इंसाफ की किया जाए तो भ्रष्टाचार को खत्म करने के उनके वायदे युवाओं और शहरी क्षेत्र के मतदाताओ में असर कर रहे है। इमरान खान का पूरा प्रचार अभियान नया पाकिस्तानबनाने को लेकर है, साफ़ है कि उनके निशाने पर नया पाकिस्तान यानी नौजवान मतदाता है। यूँ तो इमरान की खुद की काफी प्रतिष्ठा है लेकिन वह बहुमत की दौड़ में पीछे ही नज़र आते है। जानकारों के मुताबिक तहरीक इंसाफ चुनाव परिणामो में सबसे ज्यादा असर डालने वाले पंजाब और सिंध में कमजोर है।

         बड़ा झटका तो परवेज मुशर्रफ को लगा है। मुशर्रफ की चुनाव लड़ने की योजना को इलेक्शन ट्राइब्यूनल ने ख़त्म कर दिया। ट्राइब्यूनल ने कराची, चितराल, इस्लामाबाद और कसूर संसदीय क्षेत्रों से मुशर्रफ की उम्मीदवारी खारिज कर दी है। फिलहाल  मुशर्रफ घर में नज़रबंद है और सोच रहे होंगे की वो पाकिस्तान वापस ही क्यूँ लौटे।

         अब बात मुद्दों की - इन चुनावो के पांच बड़े मुद्दे भ्रष्टाचार, स्थानीय दहशतगर्दी, लोड शेडिंग यानि बिजली की क़िल्लत, शिक्षा और अमेरिकी साए से पाकिस्तान को अलग करना है।  एक दीगर बात ये है कि भले ही भारत पाकिस्तान के बीच विवाद का मुख्य मुद्दा कश्मीर हो लेकिन 11 मई को होने जा रहे चुनाव के लिए प्रचार के दौरान कश्मीर मुद्दे का जिक्र बिल्कुल नहीं के बराबर हो रहा है। यहाँ तक की सालो से पाकिस्तानी अवाम को डराने वाले हिन्दुस्तानी खतरेको लेकर भी कोई ख़ास प्रचार नहीं है। मुद्दे ज़्यादातर आम जन सुविधाओ से जुड़े ही है और ये बदलाव पाकिस्तानी जम्हूरियत के लिए एक ऐतिहासिक कदम है।

           ऐसा नहीं है कि इन चुनावो में सब कुछ ठीक ठाक जा रहा हो। चुनाव प्रचार पर भी दहशत गर्दी का साया बना हुआ है। प्रतिबंधित पाकिस्तानी तालिबान ने पिछली सरकार का हिस्सा रहीं पीपीपी, एमक्यूएम और एएनपी की रैलियां और उनके नेताओं को निशाना बनाने की धमकी दी है जिसका असर इन दलों के प्रचार पर साफ नजर रहा है। तालिबानियों का उद्देश्य चुनाव भंग करना और पाकिस्तान को लोकतन्त्र और धर्मनिरपेक्षता की राह पर आगे बढ़ने से रोकना है। सिंध, खैबर पख्तूनख्वा, बलूचिस्तान, पेशावर, कराची में हुए बम धमाको और खुद्कुश हमलावरों के चलते रैलियो और पार्टी दफ्तरों में अब तक करीब सौ से भी ज्यादा लोगो की जान जा चुकी है और सैकणों घायल है। पाकिस्तानी तालिबानियों ने कई सारे इलाकों में इस तरह के परचे छपवाकर बाँटे है जिसमे आम जनता से कहा गया है कि वे मतदान करने के लिए नहीं जाएँ, नहीं तो उनकी जान को ख़तरा है। वही पाकिस्तान के अल्पसंख्यक अहमदिया समुदाय ने उपेक्षा का आरोप लगाते हुए घोषणा की है कि वह 11 मई को होने वाले आम चुनाव का बहिष्कार करेगा। कुछ कुछ ऐसे ही एलान बलोच संघटनो ने भी किया है।

       जहाँ तक संभावित परिणामो के बारे में विशेषज्ञों का अनुमान है, माना जा रहा है कि किसी भी पार्टी को बहुमत नहीं मिलेगा और एक बार फिर गठबंधन सरकार बन सकती है। वहीं, पूर्व पीएम नवाज शरीफ की पार्टी पीएमएल (एन) सबसे बड़े दल के तौर पर सामने सकती है। खैर परिणाम जो भी हो, पाकिस्तान में होने वाले चुनाव, चुनाव प्रचार के तरीके और उसमे उठाये गए मुद्दे एक बेहतर लोकतांत्रिक बदलाव का संकेत दे रहे है जिसकी अपेक्षा पाकिस्तान से भारत समेत सारा विश्व कर रहा है।