यूँ
तो खाने को सबसे बड़ी इंसानी ज़रूरत के तौर पर लिया जाता है मगर कई लोगों के लिए ये
उससे कुछ ज्यादा यानी“शौक” भी है। मैं ऐसे ही लोगों में आता हूँ। क्या घर क्या
बाहर,
ख़ाने को लेकर मेरी दीवानगी
जुनून के तौर पर है। घाट-घाट का खाना खाने के बाद सोचा क्यों न अपने दोस्तों से इसे
शेयर किया जाए। आज से इसकी शुरुआत कर रहा हूं जिसमें सबसे पहले कश्मीर का ज़ायका जहाँ
मैं 2011 में गया था। हालाँकि उससे पहले तमाम जगहों पर कश्मीरी दम आलू और कश्मीरी पुलाव
के मज़े लिए पर सोचा कि जब बाहर इतना शानदार बनता है तो कश्मीर में तो कमाल ही मिलेगा।
डल लेक पर ठहरने के बाद जब सफ़र में मेरे
साथी दीपांशु रूम फैसिलिटी चेक कर रहे थे तब मैं मेनू पढ़ रहा था। पढ़ते-पढ़ते ही ख्वाब
सजने लगे,
मुंह में पानी आ गया।
कितना कुछ था उसमें,
मसलन रिस्ता जो भेड़
के मीट का बना होता है,
गोश्तबा, तबक माज, रोगन जोश जो रिफाइंड या किसी अन्य घी तेल में नहीं
बल्कि रोग़न यानि चर्बी के फैट से बना होता है और मर्चवागन कोरमा यानी बेहद तीखी मटन
करी जो ज़्यादातर चावल के साथ ही खायी जाती है। लेकिन दीपांशु शाकाहारी थे, मतलब ये कि ये सब कुछ हमें अकेले ही खाना था। अकेले
खाने का सबसे बड़ा नुकसान ये कि आप ज्यादा चीज़ें आज़मा नहीं सकते। खैर हमने भी हिम्मत
नहीं हारी।
दिल्ली से चलते वक़्त जो रिसर्च की थी उसमे
वाज़वान का बड़ा ज़िक्र था। प्लेन में भी सहयात्री ने न केवल वाज़वान की बड़ी तारीफ
की बल्कि दो तीन अड्डे भी बताये। हमारे कश्मीरी दोस्त आसिफ कुरैशी ने भी वाज़वान के
कसीदे पढ़े थे। पता चला कि कश्मीर घाटी में समरकंद के खानसामों के वंशज, जो खाना बनाने में उस्ताद थे यानी आज की ज़ुबां में
कश्मीर के मास्टर शेफ थे,
उन्हें ‘वाजा’ कहा जाता था। इसमें यूँ तो पारंपरिक तरीके से सात किस्म के पकवान होते है लेकिन उसे भव्य रूप देने के लिए छत्तीस किस्म के व्यंजनों का एक बुके
तैयार करते थे जो वाज़वान कहलाता हैं। यूँ तो ये तमाम बड़े होटलों और रेस्तरां में
मिलता है पर अपने असल रंग में ज़्यादातर कश्मीरी शादियों में ही दिखता है। शादियों
में आए मेहमान चार लोगो के ग्रुप में बैठते हैं और एक बड़ी सी प्लेट में से, जिसे ‘त्रामी’ कहते है, साथ ही खाना खाते हैं।
कश्मीरी ख़ाने में एक बात जो साफ़ दिखती है
वो है तरी में दही का इस्तेमाल। दही से तरी काफी गाढ़ी हो जाती है। तरी को और निखार
देने के लिए सूखे मेवों मसलन अखरोट, बादाम और किशमिश का भी प्रयोग होता है। इसके अलावा
खुशबू के लिए इलायची,
दालचीनी, लौंग और केसर का इस्तेमाल किया जाता है। कश्मीरी शायद
चावल ज्यादा खाते हैं क्योंकि पहली रोटी के बाद ही वेटर ने हमसे मुस्कुराते हुए पूछा
“राइस” ? हमने भी उन्हें उतना ही मुस्कुराते हुए इशारे से दो
और रुमाली रोटी के लिए कह दिया। वैसे भी कश्मीर में प्राचीन काल से ही ब्राहमण मांसाहारी
थे,
शायद ऋग्वेद में भी इसका
उल्लेख भी है इसलिए मैंने भी कोई संकोच नहीं बरता।
ऐसा
नहीं है कि शाकाहारियों के लिए ये जगह नहीं थी। दम आलू, और कश्मीरी पुलाव का जिक्र तो सबने सुना है पर कमल
ककड़ी के कबाब जैसी कई और नायाब चीज़े थी। कोरमा साग जिसे डल लेक में पैदा होने वाली
हरी सब्ज़ी ‘हाक’ से बनाया जाता है। हालांकि इसे मैंने खाया नहीं लेकिन
दूर से देखने में ये पालक की साग जैसी लग रही थी। हम उत्तर भारतीयों में तमाम ड्राई
फ्रूट्स औए इत्मीनान से पकाए जाने वाला कश्मीरी पुलाव बेहद मशहूर है, जिसे खाने के बाद बचे होने पर हम पैक कराके भी ले
आये लेकिन बिना कश्मीरी दम आलू के हर ज़िक्र अधूरा है। यूँ तो दम आलू का नाम आते ही
मूंह में पानी आ जाता हैं लेकिन असल दम आलू मुंह में तब आया जब मैं जम्मू में अपने
दोस्त अजय बाचलू के यहाँ गया। आलू आधा कच्चा रहने तक उबालने के बाद बीच से आधा कर के
तला जाता है। न जाने क्या-क्या मसाले थे लेकिन वाह! क्या उम्दा स्वाद था।
सबसे
आखिरी में ज़िक्र कश्मीरी चाय यानी कहवा का। केसर, इलायची और बादाम से बनी कहवा। बिलकुल अलग और क्या
शानदार स्वाद वाली चाय थी कहवा। हालाँकि थोड़ी मीठी थी लेकिन शायद इसे भी “कम शक्कर-तेज़ पत्ती” वाले अंदाज़ में बनाया जा सकता हो।
ये
वो कुछ ख़ास चीज़ें थी जो मेरे दिल-ओ-दिमाग में कश्मीरी ज़ायके के तौर पर पैबस्त हैं।
अगर आप कुछ और जानते हों तो बताएं। वैसे बता कर क्या करेंगे, सीधे बुला ही लीजिये।
क्या बात है सर! अपने तोह फिर कश्मीर की याद दिला दी! अगर बात की जाये वहां के खाने की तो उसकी बात ही कुछ और है! पिछले साल गयी थी वहां मम्मी और पापा के साथ! डल लेक पर भुट्टे के कहवा का, फिर रात को कश्मीरी पुलाव, कश्मीरी दम आलू, नान...मुह मैं फिर पानी आ गया! बहुत खूबसूरती से अपने कश्मीर का जायके की सैर करा दी है! सच मैं मज़ा आ गया! अगले सफ़र के इंतज़ार मैं - निताशा
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