Tuesday, May 25, 2010

फ़साने

पिछली बार की बाते शुरू की गयी थी "मंगूस" से, इस बार भी बाते एक ख़ास किस्म के बैट से शुरू करेंगे लेकिन लकड़ी के बजाय एल्युमिनियम बैट, दरअसल पीटीआई पर एक नए किस्म के एरोनोटीकल एल्युमीनियम से बने बैट का ज़िक्र था जो पर्यावरण के लिए बेहतर है और ज्यादा आकर्षक है. इसके अतिरिक्त लकड़ी के बैट से पांच गुना ज्यादा इसकी उम्र है, नाम रखा गया है "Wow" . मैंने कुछ दोस्तों से बात की, पता चला की इस बैट की लांचिंग बाकायदा कल दिल्ली में ही है, सोचा इसकी रिपोर्टिंग की जाये और पहुँच गए, इसको बनाया है आइआइटी के पासआउट विवेक लखोटिया ने जिनकी योज़ना जल्दी ही इसे बाज़ार में उतारने की है, हालांकि इसे किसी क्रिकेट संस्था की मान्यता नहीं मिली है, इसके अतिरिक्त इसे केवल साफ्ट बॉल या टेनिस बॉल से ही खेला जाता है, अलग अलग रंगों के ये बैट बेहद लुभावने है. इसके अतिरिक्त इन बैट्स का वज़न लकड़ी के बैट्स के मुकाबले बेहद कम है, इससे न केवल छोटे बच्चे बल्कि बड़े भी खेल सकते है, ट्रेनिंग के लिए भी ये बैट्स काफी अच्छे साबित हो सकते है. मैंने खुद इससे खेला और मज़ा आया, स्टोरी बड़ी शिद्दत से अनुराग भाई ने कटवाई, वो चला भी देते मगर मैंगलोर में हुए दर्दनाक हादसे (जिसकी तकलीफ कहीं ज्यादा है) के कारण उस दिन सुबह का "वाह क्रिकेट" गिर गया, फिर अगले दिन शाम को शशि जी के प्रयासों के कारण चला, इसके अतिरिक्त 24-24 में भी चला, कुल मिला कर एक अच्छी स्टोरी को अच्छा Air Time मिल गया

स्टोरीज़ का ज़िक्र शुरू हुआ है तो इधर मै "राजनीति" पर काफी व्यस्त रहा. रणबीर, कैटरीना, अर्जुन रामपाल, मनोज बाजपाई और प्रकाश झा के साथ लगभग पूरा दिन रहना पड़ा. दो बेहतीन स्टोरीज़ बनी जो चैनल पर कई बार चली. मुझे मनोज बाजपाई के गिफ्ट वाली स्टोरी ज्यादा पसंद आई, मेरी तारीफ भी हुई जिसका हमेशा से दिल खोल कर, बाहें फैला कर स्वागत है :) ...... कुल मिलकर लगातार 4 दिन प्राइम टाइम पर स्टोरी, इससे बेहतर क्या होगा

आज की सुबह की शुरुवात एक और खबर के साथ- गुवाहाटी राजधानी की 14 बोगियां पटरी से उतर गयी, इस घटना में किसी के हताहत होने की सूचना नहीं है।

इधर जाति की गिनती का गणित धीरे धीरे उबाल मार रहा है, राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ ने भी इस पर अपनी चिंता व्यक्त की, मुझे जानने वाले कई लोग मुझे संघ का भक्त कहते है जिसका मै समय समय पर खंडन करता आया हूँ, संघ की चिंता भी समझी जा सकती है. भारत में हर 10 साल में आबादी की गिनती होती है, लेकिन इसमें 1931 के बाद से जाति के आधार पर गिनती नहीं की गई। जब आरक्षण की मांग उठी थी तब ओबीसी को कोटा दिलाने की प्रक्रिया में पाया गया कि उनकी सही आबादी का कोई स्पष्ट आंकड़ा मौजूद नहीं है। मंडल कमिशन ने ओबीसी का हिस्सा कुल आबादी में 52 पर्सेंट माना था और इसके लिए 1931 की जनगणना को आधार बताया था। साफ़ सी बात है की स्थित बदल गयी है, तो नए आंकड़ो की ज़रूरत होगी ही . जाति-गिनती की तरफदारी करने वालो का कहना है कि अगर पिछड़ों की आबादी का सही अंदाजा ही नहीं होगा, तो उनकी भलाई के लिए योज़नाये मसलन शिक्षा और स्वस्थ्य जैसे बनेगी ही नहीं, फिर सोशल जस्टिस और सोशल वेलफेयर जो की जनतंत्र की मूल भावना है वो कैसे पूरी होगी, जबकि विरोध करने वाले इसे बंटवारे की सियासत से जोड़ रहे है। उनका कहना है कि जाति की गिनती से जातिवाद मजबूत होगा। साथ में ये भी कहा जा रहा है की जाति-गिनती आसान नहीं है। देश में अनगिनत जातियां, उपजातियां और ग्रुप हैं। उनकी पहचान भी साफ नहीं है। एक राज्य में जो ओबीसी है, वह दूसरे में कुछ और हो सकता है। मसलन तमिलनाडु में अनाथ और बेसहारा बच्चे भी ओबीसी की कैटिगरी में आते हैं। प्रैक्टिकल दिक्कत के चलते सेंसस कमिश्नरों ने जाति-गिनती का विरोध किया है। गिनती करने वालों के लिए भी यह तय कर पाना मुश्किल है कि किस जाति को ओबीसी में रखें। अगर सब कुछ पब्लिक पर छोड़ भी दिया जाए तो भी वेरिफिकेशन का सवाल बचा रहेगा। एक बात तो साफ़ है की अगर ये मामला राजनीतिक पार्टियों के हाथ में आया तो "इसका" विरोध नहीं हो पायेगा, हालांकि मै इसे अभी सीख और समझ ही रहा हूँ लेकिन फिलहाल मुझे भी इससे कोई विशेष परहेज़ नहीं दिखता

शनिवार को रितिक रोशन स्टारर काइट्स देखी, काइट्स जब बननी शुरू हुई तभी से मीडिया की सुर्खियों में किसी ना किसी वजह से जुड़ती रही , कभी रितिक और बारबरा के बीच रोमांस की खबरों के चलते तो कभी इस वजह से रितिक की फैमिली लाइफ डिस्टर्ब होने की खबरों से। लंबे इंतजार के बाद जब फिल्म रिलीज हुई तो साथ बैठे दर्शकों को काफी निराशा हुई, दीपांशु तो लगभग रो ही रहा था, यहाँ ये बात साफ़ कर दू की ये खुसी के आंसू हरगिज़ नहीं थे, मेरे लिए फिल्म उतनी बुरी नहीं थी क्यूंकि मै फिल्म की इतनी बुराई सुनकर गया था की मै उसे बाद से भी बदतर मान रहा था, मुझे वैसे भी असफल प्रेम कहानियों वाली फिल्मे पसंद है मसलन "दिल से"... खैर इतना तय है की काइट्स ज्यादा दर्शक नहीं घसीट पायेगी. अगली बड़ी फिल्म राजनीति है जो शायद 4 जून को रिलीज़ हो रही है......

फिल्म से इतर क्रिकेट की बात करे तो आज सुरेश रैना के नेत्रत्व में टीम ज़िम्बाब्वे जा रही है, सुरेश रैना के साथ मेरा एक किस्सा है. लखनऊ के गोमती नगर में जहाँ मै रहता हूँ एक स्टेडियम हुआ करता था "आंबेडकर स्टेडियम". ....हुआ करता था मै इसलिए कह रहा हूँ की माननीय बहन मायावती जी ने उसे तुडवा कर आंबेडकर स्मारक बनवा दिया और खिलाडियो को भेज दिया पहले से ही तंग "के डी सिंह बाबू स्टेडियम" में…. खैर जब वो स्टेडियम हुआ करता था तो मै अक्सर वालीबाल खेलने जाया करता था, वहां पर यूपी की क्रिकेट टीम भी प्रक्टिस करती थी, आरपी सिंह, सुरेश रैना से वहीं मुलाकात हुई थी और ये दोनों घरेलु और जूनियर क्रिकेट में जाने जाने लगे थे, उसी बीच में सौरव गांगुली जो उस वक़्त के कप्तान थे कानपुर मैच के सिलसिले में आये थे, उनसे पूछा गया की भारतीय टीम में यूपी के किस खिलाडी को आने वाले समय में देख रहे है तो दादा ने आर पी का नाम लिया, खबर अखबारों में छपी तो हम सबने आरपी को बधाई थी, वापस फिर से आते है रैना पर तो हुआ कुछ यूँ की क्रिकेटर्स प्रैक्टिस के बाद वालीबाल खेलने आते थे, मै और रैना एक टीम में थे, मै सेंटर में था और रैना बूस्टर, वो ठीक से लिफ्ट कर नहीं पा रहे थे, सब उसकी तफरी ले रहे थे, खैर गेम ख़त्म होने के बाद वो मेरे पास आये और कहने लगे की अब जब आप पहली बॉल लेना और मेरे तक बढ़ाना तो "रैना" कहकर काल करना, आप सुरेश कह रहे है, चूँकि सब मुझे रैना रैना कहते है इसलिए मै खुद ही भूल जाता हूँ की मेरा नाम सुरेश है. उसके बाद वो हसने लगा मुझे भी हंसी आ गयी. खैर हम ज्यादा नहीं मिले इसलिए मै उसे दोस्त या सामान्य जान पहचान का भी दावा नहीं कर सकता, पर ये किस्सा ज़रूर याद आता रहता है

मेरा ख्याल है आज के किस्से फ़साने कुछ ज्यादा ही हो गए, जल्दी ही फिर आपको सलाम नमस्ते बोलने ज़रूर आऊंगा

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