Monday, November 19, 2012

पोंटी चड्ढा के कुनबे और कारोबार की पूरी कहानी

दैनिक भास्कर अखबार के सौजन्य से-- 


लखनऊ. बाल ठाकरे के निधन के चलते उत्‍तर प्रदेश के सबसे बड़े कारोबारी पोंटी चड्ढा की हत्‍या की खबर मीडिया में दब गई, लेकिन यह बड़ा सवाल बना हुआ है कि उनका हजारों करोड़ रुपये का कारोबार अब कौन संभालेगा? उनकी तीन संतानें हैं। दो बेटियां और दोनों के बीच बेटा मोंटी। पोंटी के छोटे भाई राजिंदर सिंह उर्फ राजू की भी भूमिका इसमें अहम हो सकती है। पोंटी के दादा गुरुबचन सिंह चड्ढा के छह बेटे हुए- कुलवंत सिंह, हरभजन सिंह, सुरिंदर सिंह, गुरुबख्श सिंह, सुरजीत सिंह और हरिंदर सिंह। कुलवंत सिंह, हरभजन सिंह और सुरिंदर सिंह का परिवार मुरादाबाद में रहता है। बाकी भाई मुंबई चले गए थे। इनमें कुलवंत सिंह के तीन बेटे हुए गुरुदीप सिंह उर्फ पोंटी, राजिंदर सिंह उर्फ राजू और हरदीप सिंह उर्फ सतनाम। शनिवार को हुए खूनी संघर्ष में पोंटी और सतनाम की जान चली गई। उनके पिता कुलवंत एक साल पहले ही बीमारी के कारण चल बसे थे। सो, अब कुलवंत के परिवार में एक बेटा राजू और पोता (पोंटी के बेटे) मनप्रीत सिंह उर्फ मोंटी चड्ढा ही बचे हैं।


सुरिंदर सिंह के परिवार के पास गिन्नी बार एंड रेस्टोरेंट हैं। शराब के कारोबार में उनके परिवार का ज्यादा दखल नहीं है। भाई हरभजन सिंह शुरू से कुलवंत के साथ ही रहे। इसलिए उनका दखल शराब व रीयल एस्टेट कारोबार में तो है, मगर उन्होंने खुद को मुरादाबाद तक ही सीमित रखा। हरभजन सिंह चड्ढा पोंटी के चाचा तो हैं ही, मगर इनमें एक रिश्ता और भी है। इनकी पत्नियां आपस में बहनें हैं। इस वजह से चाचा-भतीजे का रिश्‍ता हमेशा अच्‍छा बना रहा। पर अब नए हालात में यह रिश्‍ता क्‍या मोड़ लेता है, इस पर लोगों की नजर रहेगी।


हरभजन के बेटे हरवीर उर्फ टीटू और चीकू हैं। इनके पास मुरादाबाद में शराब की कुछ दुकानों के अलावा चड्ढा सिनेमा, होटल 24, चड्ढा कांप्लेक्स और मुरादाबाद में रीयल एस्टेट का कारोबार है। यहां थोक के शराब कारोबार में पोंटी की भी पार्टनरशिप थी लेकिन यहां का अधिकांश काम हरभजन सिंह व उनके बेटों के नियंत्रण में ही है, जबकि वेव मल्टीप्लेक्स से लेकर वेव रीयल एस्टेट का काम पोंटी का अपना खड़ा किया और फैलाया हुआ है। पोंटी ने अपने दम पर जो हजारों करोड़ का साम्राज्‍य बनाया, उसकी विरासत को लेकर मोंटी या पोंटी के भाई राजिंद्र सिंह का ही नाम चर्चा में आ रहा है। चड्ढा परिवार के कारोबार का ज्‍यादातर हिस्‍सा पोंटी चड्ढा का ही खड़ा किया हुआ है। पाकिस्तान के बंटवारे बाद पोंटी चड्ढा के दादा गुरुबचन सिंह अपने दो बेटों कुलवंत सिंह चड्ढा और हरभजन सिंह चड्ढा के साथ पहले पीरूमदारा (रामनगर) फिर मुरादाबाद पहुंचे थे इन दो बेटों ने दूध बेचने से कारोबारी शुरुआत की थी। उनका दूध तत्कालीन आबकारी इंस्पेक्टर एसपी अदीब के घर भी जाया करता था। एसपी अदीब ने ही उन्हें ताड़ीखाना पर भांग की दुकान दिलाने में मदद की। इसके साल भर बाद पोंटी के पिता व चाचा ने गुरहट्टी पर देशी शराब का ठेका भी ले लिया। इसके बाद के वर्षो में धीरे-धीरे शराब की दुकानें बढ़ाई और साथ ही ट्रक-ट्रांसपोर्ट, फाइनेंस कंपनी, सिनेमा, होटल तक का काम बढ़ाया।

मुरादाबाद में चड्ढा परिवार ने ताड़ीखाना के पास आकर मकान लिया था और यहीं बस गए। गुरुबचन सिंह के कुछ बेटों ने तभी मुंबई का रुख कर लिया था। गुरदीप सिंह उर्फ पोंटी जब जवान हो ही रहा था, तभी पतंग की डोर से फैले करंट के कारण उसे बायां हाथ गंवाना पड़ा। दाएं हाथ में भी केवल दो अंगुलियां ही बचीं। तब उनके भविष्‍य को लेकर परिवार वाले फिक्रमंद थे। उन्‍हें नहीं लगता था कि वह कुछ कर पाएगा। लेकिन पोंटी ने करीब 25 साल पहले पहाड़ का रुख किया। हल्द्वानी ही वो जगह थी, जहां पोंटी सबसे बड़ा जैकपॉट लगा बदरफुट के ठेके से। इसके बाद ललितपुर में ग्रेनाइट की खान का भी ठेका मिला तो कारोबार आसमान की ओर जाता दिखने लगा। इसके बाद उन्होंने उन्होंने अपने बलबूते न केवल उत्तराखंड व उत्तर प्रदेश बल्कि दक्षिण भारत में आंध्र प्रदेश और तमिलनाडु तक अपना कारोबार फैला लिया। पंजाब से पुश्तैनी रिश्ता था और सगे संबंधी भी थे। वहां शराब के व्यवसाय पर एक अकाली नेता का क़ब्ज़ा था। जब सत्ता कांग्रेस के पास आई तो चड्ढा ने अकाली आधिपत्य को तोडऩे की जुगत बताई जो कांग्रेसियों को बहुत भाई। चड्ढा को पूरा बाज़ार सौंप देने के चलते अमरिंदर सिंह बदनाम हो गए। लोग सुप्रीम कोर्ट तक गए। नीलामी की नई प्रक्रिया बनी। रातोंरात चड्ढा के हज़ार कर्मचारियों के पैन कार्ड बन गए। अलग-अलग लोगों को ठेका मिला पर ढाक के तीन पात। सरकार डाल डाल, पॉन्टी पात पात। शराब की दुकानों पर निर्धारित मूल्य से ज़्यादा वसूलते। जब सब दुकानें एक हों तो शराबी क्या करे। सरकार सुनती नहीं, समाज को सहानुभूति नहीं। पोंटी चड्ढा ने उत्‍तराखंड में भी शराब कारोबार पर अपना आधिपत्‍य कर लिया था। चड्ढा परिवार ने अपने नियंत्रण वाली सम्भल इलाके की शराब की दुकानें एक अन्य ग्रुप को दे दीं और उनसे ठाकुरद्वारा ग्रुप की दुकानें ले लीं। फिर पोंटी ठाकुरद्वारा से काशीपुर पहुंचे और वहां वर्ष 1988-89 में शराब की दुकानें लेने के बाद हल्द्वानी पहुंच गए। वहां तत्कालीन आबकारी इंस्पेक्टर जीके गुप्ता ने पोंटी का साथ दिया। उनकी कृपा से हल्द्वानी में पोंटी का शराब के कारोबार पर कब्जा हो गया और फिर पूरे पहाड़ में  भी शराब कारोबार में वह छा गए। नौकरशाही के जरिए उन्‍होंने सरकार में पकड़ बनाई और उत्‍तर प्रदेश की मुलायम सरकार तक पहुंच गए। फिर उन्‍होंने दिल्‍ली का रुख किया और यहां से देश भर में विदेशी बसों को चलाने की एजेंसी ले ली। फिर एक्यूरेट ब्रेवरेज नाम से फर्म बना कर शराब बनाने की फैक्ट्री लगा दी। इस फर्म की उन्होंने कई शाखाएं खोलीं। इसी बीच रीयल एस्टेट में पोंटी ने पांव रखा। धीरे-धीरे चड्ढा ग्रुप ऑफ कंपनीज फैलता गया और पोंटी बॉलीवुड तक पहुंच गए। वह चड्ढा ग्रुप ऑफ कंपनीज के जरिए ही फिल्म वितरक और निर्माता भी बन गए। वेव मोशन पिक्चर्स के बैनर से करीब आधा दर्जन फिल्में भी रिलीज हो चुकी हैं।

उत्‍तर प्रदेश में मायावती के मुख्यमंत्री रहते पोंटी ने सरकारी चीनी मिलों को सस्ते में खऱीदा, रियल एस्टेट में 5000 एकड़ का लैंड बैंक, लखनऊ से लुधियाना तक मॉल-मल्टीप्लेक्स की श्रृंखला, कागज़़ के मिल, फि़ल्म प्रदर्शन-वितरण से निर्माण तक किया। सत्ता से निकटता का दोहन ऐसा कि मायावती के ज़माने में बाल विकास एवं पुष्टाहार योजना का 10,000 करोड़ रुपए का ठेका भी इन्हें ही मिला। जो वयस्कों को शराब पिलाता है, बच्चों के दूध का ठेका भी उसी का। समाजवादी सरकार के युवा अखिलेश ने ऐसी आपत्ति जताकर खूब तालियां बटोरी। जब मुख्यमंत्री बने तो बाल विकास योजना के ठेके की अवधि समाप्त हो गई। नए सिरे से निविदाएं आमंत्रित हुईं। 13,000 करोड़ रुपए का नया ठेका बना। वह भी चड्ढा को मिला। नियमानुसार इस योजना में स्वयंसेवी संस्थाओं और महिला मंडलों को प्राथमिकता मिलनी चाहिए। सरकारें बदलती रही, नियम भी पर पॉन्टी का प्रभुत्व जस का तस बना रहा।

10 पैसे की खातिर चले गए थे 6000 करोड़ के 'मालिक' के हाथ

जालंधर। पॉन्टी अपने करीबियों से अक्सर जिक्र किया करते थे कि दस पैसे की खातिर मैंने अपना हाथ गंवा दिया। करीबियों को सुनाया गया किस्सा यह है कि मुरादाबाद में ईदगाह रोड स्थित आदर्श नगर में पॉन्टी की रिहायश थी।  बात उस समय की है जब पॉन्टी की उम्र 10-11 साल रही होगी। एक दिन दोस्तों के साथ पतंग उड़ा रहे थे कि उनकी पतंग बिजली की तार में फंस गई। दोस्त के साथ मिलकर लोहे की रॉड से पतंग निकालनी चाही, तभी करंट लग गया।

दोस्त मौके पर दम तोड़ गया था, पॉन्टी की जान बच गई मगर दोनों हाथ बेकार हो गए। बाएं हाथ को काटना पड़ गया था। दाएं हाथ की उंगलियां काटनी पड़ी। बाद के वर्षो में उन्होंने दाएं हाथ की सर्जरी करवाई थी।  इसी हाथ से वह सारा काम करते थे। पॉन्टी के पिता कुलवंत सिंह उत्तराखंड के जिला नैनीताल के गांव पीर मजारा के रहने वाले थे। पॉन्टी के बेटे मोंटी चड्ढा की शादी अमृतसर में हुई है। पॉन्टी की दो शादीशुदा बेटियां दुबई में हैं। अर्बन एस्टेट स्थित रविंदर नगर में पॉन्टी चड्ढा की एक आलीशान कोठी है।8 मई, 2005 को कोठी में काम करने वाला नेपाली नौकर राम कुमार ने पोंटी के अंगरक्षक सुरिंदर सिंह को चाय में नशीली दवा मिलाकर पिला दी। इसके बाद कोठी से एक करोड़ दस लाख रुपए समेटकर पत्नी गीता के साथ भाग निकला। खबर पॉन्टी को मिली तो उसने अपने नेटवर्क के माध्यम से पता लगा लिया कि नौकर राम कुमार अमृतसर में है। पुलिस को लेकर खुद पॉन्टी अमृतसर गए और राम कुमार को न सिर्फ पकड़वाया बल्कि रकम भी बरामद करवा ली। राम कुमार सड़क किनारे रुपयों का बिस्तर बिछाकर सो रहा था जब पुलिस ने उसे दबोचा। उसी सिलसिले में पॉन्टी चड्ढा थाना-सात तक आए, मगर गाड़ी से नहीं उतरे थे।


कहते हैं कि तेज दिमाग वाला यह शख्स हर काम सलीके से करना जानता था। राम कुमार को अकेले दम भी पकड़ सकता था, मगर पुलिस को साथ इसलिए रखा ताकि कानूनी अड़चन न आए। 11 नवंबर 2006 को राम कुमार को अदालत ने दो साल कैद की सजा सुनाई थी।


Wednesday, November 14, 2012

जब तक है जान

         जब आप किसी ज़रूरी कागजात पर काम ख़त्म कर रहे होते है तो आखिर में आप क्या करते है – “दस्तखत”.... जो आपकी पहचान है। अपनी जिंदगी की आखिरी फिल्म को यश चोपडा ने अपना दस्तखत बनाया है। चोपड़ा की फिल्मो की खासियत होती है जज्बातों में डूबी कहानी, दमदार हीरो, खूबसूरत हिरोइन, बेहतरीन लोकेशंस, जानदार डायलॉग और दिल को छू लेने वाला म्युज़िक। साथ में एक फार्मूला भी होता है- खूब सारा रोमांस, रोमांस से निकलता है दर्द , दर्द आंसू देता है और कायदे से दिखाया गया आंसू तो बॉक्स ऑफिस पर हिट है ही। जब तक है जान इन सारी कसौटियो पर खरी उतरती है।

        यूँ तो हर फिल्म की बात करते वक़्त सबसे पहले हम उसकी कहानी का ज़िक्र करते है मगर आज बात पहले शाहरुख़ खान की। शाहरुख़ बैक टू द बेसिक्सके अंदाज़ में है। उन्हें एक अच्छी हिट की बहुत सख्त ज़रुरत थी और शायद ये फिल्म उनकी ख्वाहिश पूरी कर दे। उन्होंने फिल्म में अपने उसी अंदाज़ का इस्तेमाल किया है जिसकी पूरी एक पीढ़ी दीवानी है। वैसे भी बॉलीवुड में रोमांटिक रोल में फिलहाल शाहरुख़ के आगे अभी भी कोई नहीं है। शाहरुख़ रोमांटिक डायलॉग बोलते समय बेहद सहज लगते हैं, और बिना कुछ कहे आंखों से बोलने के फन में उनकी महारत है ही। लेकिन हाँ एक बात ज़रूर है की अब उनके चेहरे पर उम्र के निशान गहराने लगे हैं। 

       अब बात करते है कहानी की जिसे आदित्य चोपडा ने लिखा है और जो अपनी धीमी रफ्तार की वजह से फिल्म का कमज़ोर पक्ष है। कहानी के तीन किरदार समर, मीरा, और अकीरा है। यश चोपड़ा ने जितनी भी प्रेम कहानियों पर फिल्में बनाईं, उसमें आशिक हमेशा बेमिसाल मोहब्बत करने वाले होते हैं लेकिन अफसोस कि उन्हें अपना पसंदीदा साथी नहीं मिलता। इस नाकामी को अपने दिल में संजोये वो उसकी यादों के सहारे पूरी जिंदगी काट देते है। याद कीजिये कभी-कभी या फिर वीर-जारा। जब तक है जान की कहानी भी इसी तरह की है जो फिल्म की शुरुआत में धीमी और कहीं कहीं बोरिंग भी है, लेकिन धीरे-धीरे बात बनने लगती है। दरअसल यहीं यश चोपड़ा ने अपना खेल दिखाया है। उन्होंने एक मामूली कहानी को अपने दमदार प्रस्तुतिकरण के सहारे छुपा दिया है। यश चोपड़ा हमेशा से इस काम में ‍माहिर थे। उन्होंने किरदारों के अंदर चल रही भावनाओं को बेहतरीन तरीके से स्क्रीन पर पेश किया है। कई ऐसे सीन है जो दिल को छूते हैं और आँखों में नमी ला देते है, यही चोपड़ा स्कूल ऑफ़ डायरेक्टिंग की खासियत है। आप एक ही वक्त में मुस्कुराते है और रोते भी हैं।

       कैटरीना कैफ और अनुष्का दोनों खूबसूरत है और लगी भी। कैटरीना के पास अभिनय के कई शेड्स दिखाने का मौका था उन्होंने कोई कमाल की अदाकारी तो नहीं की है पर एक्टिंग में कोई बहुत बड़ा कमाल तो वो कभी भी नहीं करती है । हाँ, दिए गए काम को उन्होंने खूबसूरती से दिखते हुए निभा दिया इसमें कोई शक नहीं। अनुष्का के पास बबली गर्ल का किरदार है और उन्होंने भी अपना काम ठीक ठाक किया है । दरअसल मुझे निराश किया तो ए आर रहमान ने । उनका काम बस ठीक ठाक ही लगा। तमाम गानों में हीर”  बेहतर था। शाहरूख और कैटरीना पर फिल्माया गया ""इश्क शावा" में मेहनत तो काफी की गयी लेकिन सुनने से ज्यादा ये गाना देखने लायक है। यश चोपड़ा की फिल्मो के म्युज़िक से आप ये उम्मीद करते करते है की जब आप सिनेमा हॉल से निकले तो फिल्म के गाने आपकी जुबां पर हो, पर ऐसा हुआ नहीं । यहाँ पर फिल्म के बैकग्राउंड म्युजिक का जिक्र ज़रूरी है जो जानदार है और फिल्म के बेहतरी में मददगार है।

      दरअसल यश चोपड़ा को आज भी लगता है की दुनिया में अच्छे लोग है। ऐसे लोग है जो उम्र भर किसी से प्यार कर सकते है बिना उससे मिले- बिना उसे देखे। ऐसे लोग है जिनके लिए दुनिया में सबसे अहम् है प्यार और उससे जुड़े रिश्ते। अगर आपको भी ऐसा लगता है तो फिल्म आपको बहुत पसंद आएगी, और अगर आप इस ख्याल को सपना मानते है तो यही यश चोपड़ा की खासियत है की वो आपको सपनो की दुनिया में ले जाते है और तीन घंटे तक बाँध कर रखते है ।