तमाम रूकावटो और दशको चले मुक़दमे के बाद अयोध्या पर फैसला 30 सितम्बर को आना तय हुआ। बरबस मुझे मुन्नू मियां याद आ गए। 30 सितम्बर सुबह 7 बजे से लेकर 1 अक्तूबर की सुबह 7 बजे तक का समय यानी वो 24 घंटे मै आज आपके साथ बाटूंगा। मुन्नू मियाँ इस फैसले से कतई नहीं जुड़े है, दूर दूर तक उनका इस विवाद से कोई लेना देना भी नहीं, पर फिर भी मुझे वो याद आये।
मेरे दादा जी सपरिवार बाराबंकी में रहते थे। वहां पर हमारा महलनुमा घर था। जितना बड़ा घर था, उससे बड़ा अहाता था पर दिक्कत ये थी की आहाते के सामने सड़क से जुडी जमीन का एक सीधा हिस्सा विवादित था। हमारे पडोसी मुन्नू मियाँ उस पर अपना दावा जताते थे, जबकि दादा जी का कहना था की ये ज़मीन उनकी है। इस विवाद में हमारा नुक्सान ये था कि अगर कोई सड़क से हमारे घर पर आये तो उसे एक गली जैसे रास्ते से आना पड़ेगा। घर की सारी खूबसूरती पर गृहण लग जाता था। मै तो उस वक़्त पैदा भी नहीं हुआ था, पर कहते है की मुन्नू मियाँ से बातचीत के ज़रिये मामला सुलझाने की कोशिश की गयी। फिर मुकदमेबाजी हुई, करीब 33 साल बीत गए, कुछ नहीं हुआ। विवादित होने की वजह से उस ज़मीन पर कुछ बना भी नहीं तो ज़मीन खाली ही पड़ी रही। एक हिसाब से उस पर कब्ज़ा हमारा ही था क्यूंकि कोई निर्माण न होने के कारण हम उसी से आते जाते थे। ख़ास बात ये थी कि मुन्नू मियां या उनके परिवार से कोई रोक टोक भी नहीं थी।
लम्बे चले मुक़दमे के बावजूद मुझे याद ही नहीं कि उनके परिवार से मेरे परिवार का कभी कोई झगडा हुआ हो। हो सकता है कि मुकदमे के वक़्त या उससे पहले हुआ हो लेकिन मेरी पैदाइश के बाद से कभी कोई विवाद नहीं रहा। मुन्नू मियाँ रोज़ सुबह बाहर वाले कमरे के दरवाजे की कुर्सी पर बैठते थे और सारे दिन वहीं बैठे रहते थे। मेरे पापा या चाचा जब भी वहां से गुजरते थे- उन्हें सलाम वाले कुम चचा कहते थे। बड़ी जल्दी मैंने भी ये सीख लिया और जब भी पापा या चाचा के साथ बाहर जाता उन्हें सलाम वाले कुम चचा कहता। वो भी हँसते हुए वाले कुम अस्सलाम कहते। एक दिन हम अकेले निकले, दरवाजे पर बैठे वो दिखे तो जोर से नारा लगाया "सलाम वाले कुम चचा" उन्होंने मुझे बुलाया और ठेठ अवधी अंदाज़ में कहा की "अबे चचा है हम तुम्हारे बाप के - तुम्हारे तो दादा हुए".. . पापा की जॉब के कारण हमने बाराबंकी छोड़ दिया और महीने-दो महीने में ही जा पाते थे। पर जब भी जाते कभी भी उनके परिवार से कोई विवाद नहीं सुना। हाँ ये बात ज़रूर थी कि उनकी और दादा जी की कभी बात भी नहीं हुई।
96 में दादा जी के निधन के बाद तो बाराबंकी से नाता टूट ही गया क्यूंकि वहां कोई बचा ही नहीं था, मै उसके बाद कभी भी वहां नहीं गया, खेत वैगेरह की ज़िम्मेदारी के लिए लोग रख दिए गए, दादा जी के निधन के करीब 10 महीने बाद पापा जी को मुन्नू मियाँ के घर से फोन आया की मुन्नू मियाँ मिलना चाहते है, पापा गए तो मुन्नू मियां ने कहा की उनके भी जाने का वक़्त आ गया है, क्या वो ज़मीन ले लेंगे ? पापा जी ने पूरे सम्मान के साथ इनकार कर दिया. उन्होंने बहुत जिद की कि वो ज़मीन उनके लिए बोझ है पर पापा जी ने कहा कि उस ज़मीन से हमारा कोई सरोकार नहीं है और न ही अब उसकी देखभाल करने वाल कोई है, एक ऐसी ज़मीन जिसके लिए करीब 33 साल मुकदमा चला, उसमे दोनों पक्षों कि कोई दिलचस्पी नहीं थी. इस मामले को सांप्रदायिक रंग भी देने कि कोशिश कि गयी लेकिन वो कामयाब नहीं हुई. मुझे पता नहीं कि अयोध्या विवाद के बारे में बात करते समय मै इस बारे में क्यूँ चर्चा कर रहा हूँ, पढने वालो को शायद अजीब भी लगे पर इसका ज़िक्र अनायास ही निकल आया
खैर 30 सितम्बर को सुबह शिफ्ट में स्टार न्यूज़ एसाइनमेंट पर शिवम् गुप्ता, मो तारिक और हम थे। फैसला दोपहर 3.30 के आसपास आना था जो बढ़ कर 4 बजे हो गया। इलाहाबाद न्यायालय की लखनऊ बेंच को फैसला सुनाना था। देश में शांति थी और एक ज़िम्मेदार न्यूज़ चैनल की ज़िम्मेदारी यही थी कि ये शांति बनी रहे। आशंका थी कि कहीं कुछ "अंडर करेंट" जैसा न हो। जगह जगह हमारे सम्वाददाता नज़र रखे हुए थे। जब इलाहाबाद उच्च न्यायालय के फैसले को सुप्रीम कोर्ट द्वारा लगभग एक हफ्ते के लिए टाल दिया गया, तब सभी पक्षों में बेचैनी साफ देखी जा सकती थी, क्योंकि सब चाहते थे कि फैसला सुना दिया जाए।
हम पत्रकारों की भी अपनी अपनी आस्थाए होती है। धर्म और राजनीति को लेकर हमारा भी अपना एक विचार होता है लेकिन हमारे प्रयास यही थे कि हम हमारे काम हावी न होने पाए। जब विवादित ढांचा गिराया गया था तब मै शिशु मंदिर में था। बेहद अलग माहौल था। क्रांति के समकक्ष- आज वैसा नहीं था, लेकिन खामोश लहरे कब सुनामी में बदल जाए इसका डर था। लोगो की भारी दिलचस्पी थी। विकास भदौरिया अयोध्या का हाल बता रहे थे पर नज़र थी लखनऊ पर। पंकज झा, राजन सिंह और उमेश पाठक पल पल की सूचना दे रहे थे। जम्मू से अजय बाचलू, चंडीगढ़ से जगविंदर पटियाल, जयपुर से मनीष शर्मा, भोपाल से ब्रजेश भाई बैंगलोरे से आयशा और मुंबई से मयूर और अखिलेश सुरक्षा व्यवस्था के बारे में लगातार बता रहे थे। विगत कुछ समय में टीवी पत्रकारिता पर हल्केपन का आरोप लगता रहा है। माना जाता रहा है कि टीवी पत्रकार गैरजिम्मेदार हो गए है और गंभीर और ज़िम्मेदारी की पत्रकारिता अब केवल अखबारों में ही होती है। मै इन आरोपों को नहीं मानता और इस आरोप की धज्जियां उड़ाने का यही सही समय था, इसीलिए "तनाव" , "उल्लास" "हर्ष" "भय" "अगर" "मगर" "जश्न" आदि शब्दों से परहेज किया जा रहा था।
समय नज़दीक आता जा रहा था। धड़कने बढती जा रही थी। इसी बीच पंकज भाई ने खबर दी कि फैसले की कापी नेट पर आएगी और वहीँ से खबर पता चलेगी। साथ ही ये भी बताया कि फैसले पर कोई आधिकारिक ब्रीफिंग नहीं होगी। धडाधड वेब पेजेज़ खुल गए। रोचक बात ये थी कि सरकार की तरफ से जारी वेब आईडी भी "आरजेबी.कॉम (रामजन्मभूमि.कॉम) थी, यानी कहीं न कहीं सरकार भी मान रही थी की वहां रामजन्म भूमि थी। राजन सिंह हाईकोर्ट के पास कलेक्ट्रेट परिसर से चैट दे रहे थे कि तभी वहां हलचल हुई। हिन्दू पक्ष की वकील रंजना वाजपई और उनके समर्थक मुस्कुराते हुए विक्ट्री का साइन दिखाते हुए आते दिखे। अंदाज़ा लगना शुरू हो गया कि क्या फैसला रहा होगा। इसी बीच उमेश पाठक के मेल पर जजमेंट की कापी भी आ गयी। न्यूज़ रूम में उत्सुकता अपने चरम पर थी। सारा न्यूज़ रूम एसाइनमेंट पर आ गया। मामला ऐसा था की हर कोई इससे जुड़ा हुआ महसूस कर रहा था मगर भावनाओ की सार्वजनिक अभिव्यक्ति से बच रहा था।
क्या कमाल का सयंम था। सिर्फ खबर- वो भी खबर की तरह। नागपुर से सरिता कौशिक का फोन आया कि शायद वहां कुछ गड़बड़ हुई है। खबर को रोका गया- ज़िम्मेदारी का तकाजा यही था। तमाम गेस्ट आये- सबसे चर्चा हुई, पर मजाल है की कुछ भी हलका चला जाये। बेहद उम्दा काम रहा और कमोवेश हर चैनल पर यही हाल था। इलाहाबाद हाई कोर्ट की लखनऊ बेंच ने स्वीकार किया कि अयोध्या में विवादास्पद स्थल भगवान राम का जन्म स्थान है और मुगल शासक बाबर द्वारा वहां विवादास्पद इमारत बनवाई गई थी। इलाहाबाद हाईकोर्ट के तीनों जजों ने एकमत फैसले में कहा कि विवादित स्थल पर रामलला की पूजा जारी रहेगी। विवादित स्थल को तीन हिस्सों में सुन्नी वक्फ बोर्ड, निर्मोही अखाड़ा और रामलला पक्ष को बराबर बांटा जाए। लेकिन तीनो ने रामलला की जन्भूमि को जन्मस्थान माना। इस फैसलों को काफी संतुलित माना गया। राजनीतिक दलों ने भी बड़ी संतुलित प्रतिक्रिया दी। कुल मिलकर बेहद उम्दा दिन रहा। गर्व हुआ की हम एक महान देश में है। जो भी हो, इलाहाबाद उच्च न्यायालय का फैसला अर्ध-विराम है, पूर्ण विराम नहीं। पूर्ण विराम तब आएगा जब सुप्रीम कोर्ट इस पर फैसला सुनाएगा। मुस्लिम सर्वोच्च अदालत में अपील करेंगे, जिसका उन्हें पूरा हक भी है।
रात को सोते वक़्त बड़ी उत्सुकता थी कि जिम्मेदार अखबार कैसे रिपोर्ट करते है।
मै आगे कोई बहस बढ़ाना नहीं चाहता पर टीवी पत्रकारिता बेहद गरिमामय और ज़िम्मेदार मिशन है और हमने इसे एक बड़े दिन साबित भी किया। खैर जाते जाते मुलायम सिंह ने एक बार फिर भावनाओ को भड़काने की कोशिश की मगर उनकी बात नहीं बनी। मुलायम ने कहा की " इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने अपने फैसले में आस्था को कानून तथा सुबूतों से ऊपर रखा है और देश का मुसलमान इस निर्णय से खुद को ठगा सा महसूस कर रहा है" कौन किसे ठग रहा है साफ़ है....
खैर मजेदार हेड लाइन इकोनोमिक टाइम्स की थी – Land divided , India United. “.
अंत में- होइए वही जो राम रचि राखा
मेरे दादा जी सपरिवार बाराबंकी में रहते थे। वहां पर हमारा महलनुमा घर था। जितना बड़ा घर था, उससे बड़ा अहाता था पर दिक्कत ये थी की आहाते के सामने सड़क से जुडी जमीन का एक सीधा हिस्सा विवादित था। हमारे पडोसी मुन्नू मियाँ उस पर अपना दावा जताते थे, जबकि दादा जी का कहना था की ये ज़मीन उनकी है। इस विवाद में हमारा नुक्सान ये था कि अगर कोई सड़क से हमारे घर पर आये तो उसे एक गली जैसे रास्ते से आना पड़ेगा। घर की सारी खूबसूरती पर गृहण लग जाता था। मै तो उस वक़्त पैदा भी नहीं हुआ था, पर कहते है की मुन्नू मियाँ से बातचीत के ज़रिये मामला सुलझाने की कोशिश की गयी। फिर मुकदमेबाजी हुई, करीब 33 साल बीत गए, कुछ नहीं हुआ। विवादित होने की वजह से उस ज़मीन पर कुछ बना भी नहीं तो ज़मीन खाली ही पड़ी रही। एक हिसाब से उस पर कब्ज़ा हमारा ही था क्यूंकि कोई निर्माण न होने के कारण हम उसी से आते जाते थे। ख़ास बात ये थी कि मुन्नू मियां या उनके परिवार से कोई रोक टोक भी नहीं थी।
लम्बे चले मुक़दमे के बावजूद मुझे याद ही नहीं कि उनके परिवार से मेरे परिवार का कभी कोई झगडा हुआ हो। हो सकता है कि मुकदमे के वक़्त या उससे पहले हुआ हो लेकिन मेरी पैदाइश के बाद से कभी कोई विवाद नहीं रहा। मुन्नू मियाँ रोज़ सुबह बाहर वाले कमरे के दरवाजे की कुर्सी पर बैठते थे और सारे दिन वहीं बैठे रहते थे। मेरे पापा या चाचा जब भी वहां से गुजरते थे- उन्हें सलाम वाले कुम चचा कहते थे। बड़ी जल्दी मैंने भी ये सीख लिया और जब भी पापा या चाचा के साथ बाहर जाता उन्हें सलाम वाले कुम चचा कहता। वो भी हँसते हुए वाले कुम अस्सलाम कहते। एक दिन हम अकेले निकले, दरवाजे पर बैठे वो दिखे तो जोर से नारा लगाया "सलाम वाले कुम चचा" उन्होंने मुझे बुलाया और ठेठ अवधी अंदाज़ में कहा की "अबे चचा है हम तुम्हारे बाप के - तुम्हारे तो दादा हुए".. . पापा की जॉब के कारण हमने बाराबंकी छोड़ दिया और महीने-दो महीने में ही जा पाते थे। पर जब भी जाते कभी भी उनके परिवार से कोई विवाद नहीं सुना। हाँ ये बात ज़रूर थी कि उनकी और दादा जी की कभी बात भी नहीं हुई।
खैर 30 सितम्बर को सुबह शिफ्ट में स्टार न्यूज़ एसाइनमेंट पर शिवम् गुप्ता, मो तारिक और हम थे। फैसला दोपहर 3.30 के आसपास आना था जो बढ़ कर 4 बजे हो गया। इलाहाबाद न्यायालय की लखनऊ बेंच को फैसला सुनाना था। देश में शांति थी और एक ज़िम्मेदार न्यूज़ चैनल की ज़िम्मेदारी यही थी कि ये शांति बनी रहे। आशंका थी कि कहीं कुछ "अंडर करेंट" जैसा न हो। जगह जगह हमारे सम्वाददाता नज़र रखे हुए थे। जब इलाहाबाद उच्च न्यायालय के फैसले को सुप्रीम कोर्ट द्वारा लगभग एक हफ्ते के लिए टाल दिया गया, तब सभी पक्षों में बेचैनी साफ देखी जा सकती थी, क्योंकि सब चाहते थे कि फैसला सुना दिया जाए।
हम पत्रकारों की भी अपनी अपनी आस्थाए होती है। धर्म और राजनीति को लेकर हमारा भी अपना एक विचार होता है लेकिन हमारे प्रयास यही थे कि हम हमारे काम हावी न होने पाए। जब विवादित ढांचा गिराया गया था तब मै शिशु मंदिर में था। बेहद अलग माहौल था। क्रांति के समकक्ष- आज वैसा नहीं था, लेकिन खामोश लहरे कब सुनामी में बदल जाए इसका डर था। लोगो की भारी दिलचस्पी थी। विकास भदौरिया अयोध्या का हाल बता रहे थे पर नज़र थी लखनऊ पर। पंकज झा, राजन सिंह और उमेश पाठक पल पल की सूचना दे रहे थे। जम्मू से अजय बाचलू, चंडीगढ़ से जगविंदर पटियाल, जयपुर से मनीष शर्मा, भोपाल से ब्रजेश भाई बैंगलोरे से आयशा और मुंबई से मयूर और अखिलेश सुरक्षा व्यवस्था के बारे में लगातार बता रहे थे। विगत कुछ समय में टीवी पत्रकारिता पर हल्केपन का आरोप लगता रहा है। माना जाता रहा है कि टीवी पत्रकार गैरजिम्मेदार हो गए है और गंभीर और ज़िम्मेदारी की पत्रकारिता अब केवल अखबारों में ही होती है। मै इन आरोपों को नहीं मानता और इस आरोप की धज्जियां उड़ाने का यही सही समय था, इसीलिए "तनाव" , "उल्लास" "हर्ष" "भय" "अगर" "मगर" "जश्न" आदि शब्दों से परहेज किया जा रहा था।
समय नज़दीक आता जा रहा था। धड़कने बढती जा रही थी। इसी बीच पंकज भाई ने खबर दी कि फैसले की कापी नेट पर आएगी और वहीँ से खबर पता चलेगी। साथ ही ये भी बताया कि फैसले पर कोई आधिकारिक ब्रीफिंग नहीं होगी। धडाधड वेब पेजेज़ खुल गए। रोचक बात ये थी कि सरकार की तरफ से जारी वेब आईडी भी "आरजेबी.कॉम (रामजन्मभूमि.कॉम) थी, यानी कहीं न कहीं सरकार भी मान रही थी की वहां रामजन्म भूमि थी। राजन सिंह हाईकोर्ट के पास कलेक्ट्रेट परिसर से चैट दे रहे थे कि तभी वहां हलचल हुई। हिन्दू पक्ष की वकील रंजना वाजपई और उनके समर्थक मुस्कुराते हुए विक्ट्री का साइन दिखाते हुए आते दिखे। अंदाज़ा लगना शुरू हो गया कि क्या फैसला रहा होगा। इसी बीच उमेश पाठक के मेल पर जजमेंट की कापी भी आ गयी। न्यूज़ रूम में उत्सुकता अपने चरम पर थी। सारा न्यूज़ रूम एसाइनमेंट पर आ गया। मामला ऐसा था की हर कोई इससे जुड़ा हुआ महसूस कर रहा था मगर भावनाओ की सार्वजनिक अभिव्यक्ति से बच रहा था।
क्या कमाल का सयंम था। सिर्फ खबर- वो भी खबर की तरह। नागपुर से सरिता कौशिक का फोन आया कि शायद वहां कुछ गड़बड़ हुई है। खबर को रोका गया- ज़िम्मेदारी का तकाजा यही था। तमाम गेस्ट आये- सबसे चर्चा हुई, पर मजाल है की कुछ भी हलका चला जाये। बेहद उम्दा काम रहा और कमोवेश हर चैनल पर यही हाल था। इलाहाबाद हाई कोर्ट की लखनऊ बेंच ने स्वीकार किया कि अयोध्या में विवादास्पद स्थल भगवान राम का जन्म स्थान है और मुगल शासक बाबर द्वारा वहां विवादास्पद इमारत बनवाई गई थी। इलाहाबाद हाईकोर्ट के तीनों जजों ने एकमत फैसले में कहा कि विवादित स्थल पर रामलला की पूजा जारी रहेगी। विवादित स्थल को तीन हिस्सों में सुन्नी वक्फ बोर्ड, निर्मोही अखाड़ा और रामलला पक्ष को बराबर बांटा जाए। लेकिन तीनो ने रामलला की जन्भूमि को जन्मस्थान माना। इस फैसलों को काफी संतुलित माना गया। राजनीतिक दलों ने भी बड़ी संतुलित प्रतिक्रिया दी। कुल मिलकर बेहद उम्दा दिन रहा। गर्व हुआ की हम एक महान देश में है। जो भी हो, इलाहाबाद उच्च न्यायालय का फैसला अर्ध-विराम है, पूर्ण विराम नहीं। पूर्ण विराम तब आएगा जब सुप्रीम कोर्ट इस पर फैसला सुनाएगा। मुस्लिम सर्वोच्च अदालत में अपील करेंगे, जिसका उन्हें पूरा हक भी है।
रात को सोते वक़्त बड़ी उत्सुकता थी कि जिम्मेदार अखबार कैसे रिपोर्ट करते है।
- अमर उजाला लिखता है "रामलला विराजमान रहेंगे ",
- दैनिक जागरण की भी पहली खबर "विराजमान रहेंगे रामलला",
- दैनिक भास्कर को पढ़िए " भगवान् को मिली भूमि",
- Times Of India- “2 parts to Hindus, 1 part to Muslims”, ..
मै आगे कोई बहस बढ़ाना नहीं चाहता पर टीवी पत्रकारिता बेहद गरिमामय और ज़िम्मेदार मिशन है और हमने इसे एक बड़े दिन साबित भी किया। खैर जाते जाते मुलायम सिंह ने एक बार फिर भावनाओ को भड़काने की कोशिश की मगर उनकी बात नहीं बनी। मुलायम ने कहा की " इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने अपने फैसले में आस्था को कानून तथा सुबूतों से ऊपर रखा है और देश का मुसलमान इस निर्णय से खुद को ठगा सा महसूस कर रहा है" कौन किसे ठग रहा है साफ़ है....
खैर मजेदार हेड लाइन इकोनोमिक टाइम्स की थी – Land divided , India United. “.
अंत में- होइए वही जो राम रचि राखा
Dubey ek badhiya balanced lekh par last line mein aapne apni loyalty zaahir kar di. all in all i am proud of you and proud of the fact that i belonged to the same team.
ReplyDeletedubey ji ek behtareen lekh, par aakhiri line mein objectivity ke pehlu khatm hote nazar aaye. i am extremely proud of you and the team you are part of, coz i have come out o fthe same system
ReplyDeleteDubey, good now you have matured as a journalist.
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