Tuesday, July 17, 2012

युवा और राजनीति- मेरे छोटे भाई रूद्र द्वारा लिखा गया लेख


विषय-युवा एवं राजनीती

मूल विषय पर आने से पहले हम ये जान ले की वास्तव में हम युवा किसे बोल सकते है?यदि हम उन सभी सुने-सुनाये तर्कों,उक्तियो,एवं कथाओ को किनारे पर रख दे (जिसमे व्यक्ति के कार्यो की उर्जा,उसकी देह,उसकी काया,उसका परिश्रम उसे युवा सरीखा दिखाते है भले ही उसकी उम्र ६० से ऊपर हो) तो पाएंगे की वास्तविकता यही है कि १७ से ३५ की उम्र की सीमा के मध्य आने वाले लोग ही वास्तव में युवा कहलाने के अधिकारी है।क्यूंकि यही वो उम्र सीमा है जिसमे व्यक्ति की उर्जा,उसकी कार्यक्षमता,उसके विचार,उसकी द्रष्टि एवं उसका समर्पण ये सब वेगवान एवं नवीन होते है।

अब जरा ये भी जान लेते है की राजनीती क्या है? राजनीती शास्त्र में स्नाकोत्तर एवं तत्पश्चात शोध करते हुए सरल शब्दों में जितना मै राजनीती को समझ पाया हूँ,वो मात्र इतना है कि वो नीति जो राज्य का सफल सञ्चालन करे उसे ही राजनीती कहा जा सकता है या कहते है।हालाँकि इसके इतर आपको बहुत सी परिभासाएं मिल जाएगी लेकिन मेरा मानना है कि एक आम आदमी भी राजनीती को काफी कुछ इन्ही अर्थो में लेता है।

युवाओं और राजनीती में क्या समानताएं हैं:-

वर्तमान समय की राजनीती और युवाओं के मध्य यदि समानता खोजने चले तो पाएंगे की जो समानता सबसे प्रमुख है वह ये है की दोनों के सामने ही पहचान का संकट है और शायद इसका मुख्या कारण ये है की दोनों ही अपने-अपने मार्ग भूल चुके है।

आज-कल के युवा, रोजगार के नाम पर किसी अन्य देश में जा कर गाडी चलाना या ऑफिसर बन जाना ज्यादा पसंद करेंगे और आज-कल की राजनीती, वो तो विचारोतेजक व्याख्यान देने वालो जननायको से हो कर वर्तमान में गनरो से लैश कुछ पैसे वालो या बाहुबलियों के हाथो का मोहरा बनता जा रही है।

मेरे विचार से इन दोनों की बिगडती हुई दशा का मुख्य कारण शायद दोनों का एक-दूसरे से अलग हो जाना है।यदि हम गहराई से जा कर उन कारणों की विवेचना करे जिनके कारण युवा एवं राजनीती दोनों एक दूसरे से अलग हो चुके है तो पाएंगे की राजनीती में युवाओं को मिलने वाली उपयुक्त अवसरों की कमी,परिवारवाद का गहरे तक पैठ जमा लेना,युवाओं को कम उम्र का हवाला दे कर उनकी क्षमताओं की अवहेलना करना या फिर कहीं-कहीं पर राजनीती की अस्थिर प्रकृति भी हो सकती है।

कारण चाहे जो भी हो लेकिन परिणाम निश्यचात्मक ढंग से सुखांत नहीं दिख रहा है। हम कब तक युवाओं को राज्य सञ्चालन की जिम्मेदारी से दूर रख सकते है? स्मरण रहे,क्रांति हमेशा शोषित वर्ग द्वारा ही होती है।

कुछ मजेदार तथ्य भी देखिये-

काफी प्रयासों के बाद मतदान के लिए तो निम्नतम आयु १८ वर्ष कर दी गयी परन्तु उम्मीदवार बनने के लिए अभी भी २५ वर्ष ही उम्र रखी गयी है।इसका अर्थ ये है की देश को कौन सम्हालेगा ये तो वो तय करेंगे लेकिन अगर वो खुद भी उन लोगो में शामिल होना चाहे तो हमेंउन्हें ७ वर्षो का लम्बा इंतज़ार करना पड़ेगा, भले ही वो देश की दशा या दिशा से कितना ही असंतुष्ट ही क्यूँ न हो, भले ही राजनीतिक प्रकियाओं को वो कितना ही नजदीक से क्यूँ न देख चुका हो,भले ही राजनीतिक दलों की कार्य पदत्ति को कितने ही बेहतर तरीके से वो क्यूँ न समझ चुका हो एवं आम लोगो से उसका संवाद भले ही कितना ही प्रगाड़ हो लेकिन उसे प्रतीक्षा करनी पड़ेगी और आज के अर्थ-प्रधान युग में कोई युवा इतना बड़ा जोखिम लेने की स्थिति में नहीं रहता है।

हालाँकि भारत को सर्वाधिक नवजवानों वाला देश माना जाता है लेकिन क्या विश्व में भारत की पहचान एक नवयुवकों वाले देश के रूप में है? अंतररास्ट्रीय मंचो पर होने वाले खेल-आयोजन हो या वैश्विक ज्वलंत मुद्दों पर होने वाली बैठकें..आतंकवाद, नक्सलवाद से लड़ने वाली हमारी कार्यपदत्ति या परिणाम हो या वैश्विक परिद्रश्य में मित्रो से ज्यादा हमारे दुश्मनों की संख्या, इन सभी प्रश्नों को उठा के देखेंगे तो पाएंगे कहीं ना कहीं हमारी नीतियों में कुछ कमी है और कमी शायद यह की जिन दो चीजों को हम सबसे ज्यादा प्रचारित करते है कि "भारत विश्व का सबसे बड़ा लोकतंत्र है और भारत विश्व का सबसे अधिक युवाओं वाला देश है"-दोनों का ही आपस में कोई सामंजस्य नहीं है।सबसे नरम रोएं वाले लड़के, लड़कियां जब च्युइंगम चबाते हुए आई हेट पालिटिक्सकहते हैं तो आसानी ने नजर न आने वाला एक मेटामार्फासिस घटित होता है। वे लोकतंत्र की सड़क पर फुदकते मासूम मेढकों में बदल जाते हैं जिस पर जनविरोधी राजनीति के रोड रोलर गड़गड़ाते हुए गुजर रहे हैं। हालाँकि मेरा मानना है कि कमाने-खाने-वंश बढ़ाने से इतर नई राहें चुनने वालों के लिए परिवार हमेशा वाटर लू साबित हुआ है। लेकिन हिन्दी पट्टी में कई नेता इसके उलट उदाहरण हैं जो पार्टी में आए ही इसलिए कि इच्छित समय पर खेती के काम के लिए सस्ते मजदूर मिल सकें। सिर्फ जवाहर लाल नेहरू और मुलायम सिंह यादव ही परिवारवादी नहीं हुआ करते।याद रखिये आप सीईओ हैं, आईएएस हैं, प्रोफेसर हैं, वैज्ञानिक हैं, फिल्मकार हैं, आप जो भी हैं राजनेताओं को खूब कोसते हैं लेकिन अपने तबादले और टुच्ची सहूलियतों के लिए उन्हीं के आगे खींसे निपोरे झुके पाए जाते हैं। क्या आपको इस पाखंड से निजात नहीं पा लेनी चाहिए? जो आपकी नजर भ्रष्ट, तिकड़मी और पतित हैं क्या उनकी गलत राजनीति को अपदस्थ करने के लिए आपको सही राजनीति नहीं करनी चाहिए। चाहे यह कितना ही असंभव सा काम क्यों न हो।

पूरी तरह से बीमार हो चुके समाज के साथ सामंजस्य बना लेना तो हमारे स्वस्थ होने का पैमाना नहीं हो सकता।आज हम युवाओं में बढते अपराध, गैर जिम्मेदाराना व्यवहार की तो चर्चा करते है लेकिन इसके मूल में नहीं जाते।जहाँ तक एक युवा होने के नाते मै समझ पाया हूँ वो सिर्फ इतना है कि हम उन्हें वो जिम्मेदारी नहीं प्रदान कर रहे हैं जो स्वतंत्र आन्दोलन या जे.पी. आन्दोलन के समय तत्कालीन नेत्रत्व्कर्ताओ ने विश्वास कर के प्रदान की थी या कुछ अर्थो में उन्होंने खुद ही पहल कर के जिम्मेदारी हाथ में ले ली थी। खुदीराम बोस-१८ वर्ष एवं शहीद-ऐ-आजम भगत सिंह-२३ वर्ष इसके ज्वलंत उद्धरण है।उनके तरीके उचित थे या अनुचित ये बहस का विषय हो सकता है लेकिन उनकी मंशा और नियति सर्वोच्च थी-इसमें कोई संशय नहीं है।

क्रन्तिकारी कवि पाश ने लिखा था कि-
"मेहनत की लूट सबसे खतरनाक नहीं होती ।
पुलिस की मार सबसे खतरनाक नहीं होती ।
सबसे खतरनाक होता है मुर्दा शांती से भर जाना ।"

इसीलिए जिम्मेदारी सिर्फ एक तरफ़ा नहीं हो सकती, युवाओं कि भी जिम्मेदारी बनती है कि वो तब तक किसी भी नेता,व्यवस्था,दल या नीति कि आलोचना न करे जब तक कि उसके बारे में अधिक से अधिक न जान लें। हम सिर्फ राजनीती .को गंदगी कह के अपना दामन ज्यादा दिन तक साफ़ नहीं रख सकते है।बेर्टोल्ट ब्रेष्ट बोला करते थे कि "सबसे जाहिल व्यक्ति वह है जो राजनीतिक रूप से जाहिल है.लगता है उसे पता नहीं कि जीने का खर्च, सब्ज़ि‍यों की, आटे की, दवाओं की क़ीमत, किराया-भाड़ा, सब कुछ राजनीतिक फ़ैसलों पर निर्भर करता है। वह तो अपने राजनीतिक अज्ञान पर गर्व भी करता है, और सीना फुलाकर कहता है कि वह राजनीति से नफ़रत करता है"।इसलिए युवाओं अब आपके राजनीती से दूर रहने कि बेला का अंत हुआ, उठिए और पूरे वेग के साथ आगे आइये।
हम परिवर्तन को इंतजार करने के लिए नहीं बोल सकते और वो भी तब जब कि वो समय कि मांग बन चुका हो।आज तो अधिकतर राजनीतक दलों कि यूथ विंग की कमान भी कुछ ऐसे "युवाओं" के हाथ में जिनकी आयु ४० से ऊपर हो चुकी है।हम कब तक नए खून को केवल रैलियों या लाठी-चार्ज में आगे खड़े होने के लिए इस्तमाल करते रहेंगे? मुझे ऐसा भारत स्वीकार नहीं जहाँ करोडो नवजवान लाठी खाते हुए किसी रिअलिटी शो के आडिसन के लिए गेट पर खड़े रहे और मतदान वाले दिन मतदान केंद्र लोगो की बाट जोहे। मै आगे बढ़ना चाहता हूँ,मुझे अपना हक चाहिए और वो भी किसी अहसान के रूप में नहीं बल्कि इसलिए क्यूंकि मै सक्षम हूँ। आप परीक्षाएं लेना चाहते है तो लें लेकिन मुझे अवसर दीजिये-सफलता या असफलता की गारंटी कोई नहीं ले सकता लेकिन कम से कम आप इस अपराधबोध से तो बच सकेंगे की समाज का एक वर्ग अभी भी उचित अवसर नहीं पा रहा है।हालाँकि दुनिया बड़ी है, आबादी ज्यादा। हर दिन लोग मर रहे हैं। उनके लिए शोकगीत लिखे जा रहे हैं, संस्मरण छप रहे हैं और संस्थाएं बन रही हैं। ऐसे में युवाओ का राजनीती में आने पर लिखने का मतलब नहीं बनता लेकिन मै कहा मानने वाला??

6 comments:

  1. Great. Well written Rudra. Arunoday

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  2. Mujhe pahle rajneeti me koi dilchaspi nahi hua kerta tha par..Par pichle kuch samay se Rudra bhaiya ko dekh k aur unke duwra kiye gai updates/lekh and unke vichar dekh kr k ..Ab main khud unhe puri tarah se support kerne k liye main unka sath dunga...ager is tarah ko soch har ek yuwa rakhne lage to hmare desh me jaldi ki ache rajtanta ki sathapna ho jaigi...

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  3. रूद्र का यह आलेख मुझे भरोसा दिलाता है कि आसपास का अँधेरा छंटेगा. विचारोत्तेजना दीपक बन जाती है, दीपक से दीपक जलता है और अमावस्या में दीपावली मन जाती है. रूद्र क्रांति के लिए जमीं तैयार कर रहा है, बौद्धिक है, संवेदना से ओतप्रोत है, हम उसमें धैर्य बोना चाहते है. शुभकामना.

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  4. मित्र जब तक युवा अपनी ताकत नहीं पहचानेगा और हाथ पसार के बड़े राजनेताओं से पद की याचना करना बंद नहीं करेगा तब तक यूँ ही भ्रष्ट,बेशर्म और झुर्रीदार बुड्ढे इस देश के सिहासनो में कुंडली मारे बैठे रहेंगे ,,,,, दमदार मुद्दे पर लिखने के लिए बधाई |

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