अरुणोदय प्रकाश को करीब से जानने वाले या फिर जानने का दावा करने वालो के लिए किताब किसी सुखद आश्चर्य से कम नहीं है । वजह ये है की जब उन्होंने पहली बार इस किताब पर काम करने का जिक्र किया था , तब ये स्वाभाविक रूप से लगा था की किताब English में होगी क्यूंकि अरुण English मे ही लिखना पसंद करते है – नजीर है उनका ब्लॉग । मगर फिर भी उन्होंने माध्यम हिंदी चुना जो वाकई स्वागतयोग्य है । अरुणोदय साथी पत्रकारों से थोडा अलग है। थोड़े से संकोची और काफी संवेदनशील। किताब में उनके दोनो रूप साफ़ दीखते है। व्यक्तिगत रूप से मेरा मानना है की किताब में थोड़े और पन्ने हो सकते थे और इसके लिए मै अरुण के संकोची स्वाभाव को ही जिम्मेदार मानता हूँ। संवेदनशील इसलिए क्यूंकि मेरा अरुण के साथ पिछले 5 साल लगभग हर दिन करीब 10 घंटे साथ काम करने का अनुभव है और ये मैंने हमेशा देखा है की वो खबर को दिल पर लेते है- सोचते है , समझते है और कभी कभी बोलते भी है। वो उनलोगों में से नहीं है जो पत्रकारिता को क्रांति का झंडा बना कर हमेशा आक्रामकता से प्रहार करते है और न ही उस जमात के है जिनके लिए खबर विजुअल और बाईट है। सिस्टम में रहकर सिस्टम सही करने की सोच रखने वाले अरुण की किताब “अन्नान्दोलन: सम्भावनाएं और सवाल” भी उनके अक्स को दिखाती है। इसमें न तो “अन्नान्दोलन” की अंध भक्ति है और न ही “सम्भावनाएं और सवाल” उठाते समय कोई नकारात्मक धारणा।
दरअसल अन्ना एक आंधी कि तरह आये और उनके नेतृत्च में पूरा देश भ्रष्टाचार के खिलाफ सड़क पर उतरा। हर तरफ आवाज़ उठी की `जन लोकपाल लाओ- भ्रष्टाचार भगाओ”। कईयों को आंदोलन एक सार्थक प्रयास लगा तो कईयों को फैशन परेड । हम पत्रकारों के लिए ये आंदोलन पहले एक इवेंट की तरह था जिसमें ओबी लगाओ, रिपोर्टर फिट करो और नज़र रखो की रणनीति बनायीं गयी मगर धीरे धीरे ये परेड जोर पकड़ने लगी । जन लोकपाल की लड़ाई ने धीरे धीरे ही सही लेकिन भारतीय `जनतंत्र´ के खोखलेपन को उजागर कर दिया । सवाल उठा की क्या यह सरकार, यह व्यवस्था और यह संसद कभी भी देश को एक ऐसा क़ानून दे सकती है जो भ्रष्टाचार को रोके ? चाहे किसी भी पार्टी की सरकार बने पर क्या आम आदमी बिना घूस दिए काम करा सकता है ? क्या भ्रष्टाचारी नेता और पार्टियां कभी भी अपने गले में खुद फांसी का फंदा डालेंगे ? सवाल व्यवस्था पर भी उठा की क्या वक्त नहीं आ गया है की पूरी व्यवस्था को ही आमूल चूल रूप से बदला न जाए ? आखिर कब तक जन लोकपाल क़ानून आयेगा और अगर वो आया तो उसका स्वरुप क्या होगा ? ये सारे वो सवाल है जो “अन्नान्दोलन: सम्भावनाएं और सवाल” में अरुणोदय प्रकाश ने उठाये गए है
मै आपातकाल और जेपी के बाद की पैदाइश हूँ और मेरी पीढ़ी के लिए ये पहला आंदोलन था जो जनांदोलन के रूप में बदला। आंदोलन कहना इसलिए भी जायज़ होगा क्यूंकि किसी एक मांग को लेकर जनसमूह सडको पर था। कई मित्र कहते थे की कुछ हज़ार की भीड़ को जनांदोलन कहना जायज़ नहीं होगा मगर याद नहीं आता की कब इस तरह आम जनता के दवाब में नेता इससे पहले आये हो। ये भी नहीं याद आता की इससे पहले कब नेताओ और अभिनेताओ के अलावा किसी और को सुनने के लिए भीड़ इस कदर इकट्ठी होती हो और ये भी नहीं याद आता की कब देसज भाषा में बात करने वाला कोई बुज़ुर्ग और चप्पल पहन के चलने वाला एक व्यक्ति सांसदों को इस तरह भयभीत कर पाया हो ? मगर ये आंदोलन सर्वगुण संपन्न नहीं था और आंदोलन का स्वरुप कई कदमो पर भटका भी। “अन्नान्दोलन: सम्भावनाएं और सवाल” में तमाम लेखो में ये बात साफ़ हो जाती है । जैसा की “अन्नान्दोलन: सम्भावनाएं और सवाल” में वरिष्ठ पत्रकार आशुतोष लिखते है की अन्ना को लेकर पहले पत्रकारों की सोच क्या थी और वो कैसे कैसे बदली, किस तरह से बेहद मामूली समझे जाने वाला व्यक्ति एकदम से नया गांधी बन गया तो वहीं वरिष्ठ पत्रकार विजय विद्रोही उन सभी पहलुओ को उठाते दीखते जो आंदोलन के लिए मुश्किलें लेकर आया । पर पाठकों के लिए इससे अच्छा और क्या होगा की सभी सवालो पर इसी संकलन में अरविन्द केजरीवाल और मनीष सिसोदिया जवाब भी देते है । दरअसल आंदोलन से जुड़े कुछ अच्छे लेखों का संकलन इस किताब में किया गया है जिनमे अरविंद केजरीवाल, अरुणा राय, आशुतोष, विजय विद्रोही, सुधांशु रंजन, आनंद प्रधान, मनीष सिसोदिया, शकील अहमद जैसे नाम शामिल हैं । मात्र 253 पन्नों में अरुणोदय आंदोलन से जुड़े तमाम पक्षों को सामने ले आये। कांग्रेस का नजरिया लेकर आये शकील को पढ़ना वाकई दिलचस्प था तो दूर खाड़ी देश में बैठे भारतीय पत्रकार सैयद अली का लेख भी एक अलग नजरिया लिए हुए था । निखिल डे इस आंदोलन को जहाँ RTI के प्रयासों की अगली कड़ी के तौर पर देखते है तो वहीं उदित राज आंदोलन की सबसे बड़ी कमजोरी इसका सामाजिक सरोकारो से दूर होना मानते है ।
किताब के तमाम खासियतो के अलावा एक जो बात सबसे आकर्षक है वो है इसकी सरलता। इतने बड़े बड़े नाम लेकिन किसी ने भी भाषा की महिमा और व्यर्थ का पांडित्य दिखने की कोशिश नहीं की। सरल भाषा में मौजूदा परिस्थितया और उनसे उपजे आंदोलन को तथ्यों के सांचे में ढाल कर लिखे गए लेखो का संकलन है “अन्नान्दोलन: सम्भावनाएं और सवाल” और इसलिए मेरा पूरे विश्वास के साथ मानना है की जनलोकपाल और अन्ना आंदोलन के बारे में पुख्ता और उम्दा जानकारी पाने का एक बेहतरीन जरिया ये किताब हो सकती है । पर आखिर में फिर वही शिकायत श्रीमान प्रकाश से की किताब इतनी भी छोटी नहीं होनी चाहिए की मेरे जैसा अस्थिर व्यक्ति भी World Book Fair में किताब खरीदने के बाद उसे एक ही सिटिंग में बैठकर खत्म कर दे।
दरअसल अन्ना एक आंधी कि तरह आये और उनके नेतृत्च में पूरा देश भ्रष्टाचार के खिलाफ सड़क पर उतरा। हर तरफ आवाज़ उठी की `जन लोकपाल लाओ- भ्रष्टाचार भगाओ”। कईयों को आंदोलन एक सार्थक प्रयास लगा तो कईयों को फैशन परेड । हम पत्रकारों के लिए ये आंदोलन पहले एक इवेंट की तरह था जिसमें ओबी लगाओ, रिपोर्टर फिट करो और नज़र रखो की रणनीति बनायीं गयी मगर धीरे धीरे ये परेड जोर पकड़ने लगी । जन लोकपाल की लड़ाई ने धीरे धीरे ही सही लेकिन भारतीय `जनतंत्र´ के खोखलेपन को उजागर कर दिया । सवाल उठा की क्या यह सरकार, यह व्यवस्था और यह संसद कभी भी देश को एक ऐसा क़ानून दे सकती है जो भ्रष्टाचार को रोके ? चाहे किसी भी पार्टी की सरकार बने पर क्या आम आदमी बिना घूस दिए काम करा सकता है ? क्या भ्रष्टाचारी नेता और पार्टियां कभी भी अपने गले में खुद फांसी का फंदा डालेंगे ? सवाल व्यवस्था पर भी उठा की क्या वक्त नहीं आ गया है की पूरी व्यवस्था को ही आमूल चूल रूप से बदला न जाए ? आखिर कब तक जन लोकपाल क़ानून आयेगा और अगर वो आया तो उसका स्वरुप क्या होगा ? ये सारे वो सवाल है जो “अन्नान्दोलन: सम्भावनाएं और सवाल” में अरुणोदय प्रकाश ने उठाये गए है
मै आपातकाल और जेपी के बाद की पैदाइश हूँ और मेरी पीढ़ी के लिए ये पहला आंदोलन था जो जनांदोलन के रूप में बदला। आंदोलन कहना इसलिए भी जायज़ होगा क्यूंकि किसी एक मांग को लेकर जनसमूह सडको पर था। कई मित्र कहते थे की कुछ हज़ार की भीड़ को जनांदोलन कहना जायज़ नहीं होगा मगर याद नहीं आता की कब इस तरह आम जनता के दवाब में नेता इससे पहले आये हो। ये भी नहीं याद आता की इससे पहले कब नेताओ और अभिनेताओ के अलावा किसी और को सुनने के लिए भीड़ इस कदर इकट्ठी होती हो और ये भी नहीं याद आता की कब देसज भाषा में बात करने वाला कोई बुज़ुर्ग और चप्पल पहन के चलने वाला एक व्यक्ति सांसदों को इस तरह भयभीत कर पाया हो ? मगर ये आंदोलन सर्वगुण संपन्न नहीं था और आंदोलन का स्वरुप कई कदमो पर भटका भी। “अन्नान्दोलन: सम्भावनाएं और सवाल” में तमाम लेखो में ये बात साफ़ हो जाती है । जैसा की “अन्नान्दोलन: सम्भावनाएं और सवाल” में वरिष्ठ पत्रकार आशुतोष लिखते है की अन्ना को लेकर पहले पत्रकारों की सोच क्या थी और वो कैसे कैसे बदली, किस तरह से बेहद मामूली समझे जाने वाला व्यक्ति एकदम से नया गांधी बन गया तो वहीं वरिष्ठ पत्रकार विजय विद्रोही उन सभी पहलुओ को उठाते दीखते जो आंदोलन के लिए मुश्किलें लेकर आया । पर पाठकों के लिए इससे अच्छा और क्या होगा की सभी सवालो पर इसी संकलन में अरविन्द केजरीवाल और मनीष सिसोदिया जवाब भी देते है । दरअसल आंदोलन से जुड़े कुछ अच्छे लेखों का संकलन इस किताब में किया गया है जिनमे अरविंद केजरीवाल, अरुणा राय, आशुतोष, विजय विद्रोही, सुधांशु रंजन, आनंद प्रधान, मनीष सिसोदिया, शकील अहमद जैसे नाम शामिल हैं । मात्र 253 पन्नों में अरुणोदय आंदोलन से जुड़े तमाम पक्षों को सामने ले आये। कांग्रेस का नजरिया लेकर आये शकील को पढ़ना वाकई दिलचस्प था तो दूर खाड़ी देश में बैठे भारतीय पत्रकार सैयद अली का लेख भी एक अलग नजरिया लिए हुए था । निखिल डे इस आंदोलन को जहाँ RTI के प्रयासों की अगली कड़ी के तौर पर देखते है तो वहीं उदित राज आंदोलन की सबसे बड़ी कमजोरी इसका सामाजिक सरोकारो से दूर होना मानते है ।
किताब के तमाम खासियतो के अलावा एक जो बात सबसे आकर्षक है वो है इसकी सरलता। इतने बड़े बड़े नाम लेकिन किसी ने भी भाषा की महिमा और व्यर्थ का पांडित्य दिखने की कोशिश नहीं की। सरल भाषा में मौजूदा परिस्थितया और उनसे उपजे आंदोलन को तथ्यों के सांचे में ढाल कर लिखे गए लेखो का संकलन है “अन्नान्दोलन: सम्भावनाएं और सवाल” और इसलिए मेरा पूरे विश्वास के साथ मानना है की जनलोकपाल और अन्ना आंदोलन के बारे में पुख्ता और उम्दा जानकारी पाने का एक बेहतरीन जरिया ये किताब हो सकती है । पर आखिर में फिर वही शिकायत श्रीमान प्रकाश से की किताब इतनी भी छोटी नहीं होनी चाहिए की मेरे जैसा अस्थिर व्यक्ति भी World Book Fair में किताब खरीदने के बाद उसे एक ही सिटिंग में बैठकर खत्म कर दे।
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