फिल्म समीक्षा- ‘द अटैक्स ऑफ 26/11’ - रामगोपाल वर्मा 26/11 के उस आतंकी हमले जिसमें क्या मुंबई क्या भारत पूरी
इंसानियत हिल गयी थी को फिल्म की शक्ल में सामने लाये है। साफ़ है की कहानी सबको पता
है – यानि देखने की अब केवल दो वजहे बची- एक्टिंग और कहानी के साथ ट्रीटमेंट। रामू
ने अपनी तरफ से कोशिश तो की लेकिन फिल्म और बेहतर हो सकती थी।
फ्लॉप या हिट- एवरेज
फिल्म में कौन कौन-
कलाकार- नाना पाटेकर,
संजीव जायसवाल,
अतुल कुलकर्णी
निर्देशक- राम गोपाल वर्मा
निर्माता- राम गोपाल वर्मा
कहानी क्या है –कहानी को लेकर रामू ने रिसर्च खूब की है और
फिल्म में ये बात साफ़ नज़र आती भी है। फिल्म शुरू होती है मुंबई के तत्कालीन
ज्वाइंट कमिश्नर राकेश मरिया बने नाना पाटेकर के एक कमीशन के सामने दिए जा रहे
बयान से। अपने बयान में नाना पाटेकर उस रात के हमले और उसके मुकाबले में मुंबई
पुलिस की कोशिशो को बयाँ करते है। किस तरह पाकिस्तानी आतंकी समुद्र के रास्ते मुंबई
में दाखिल हुए और अलग अलग जगहों पर हमला कर दिया। क्या आम क्या ख़ास जो भी सामने
मिला उसे भून कर रख दिया। जैसे जैसे फिल्म में घटनाएं होती है फिल्म आपमें और सिहरन
पैदा करती है। बेगुनाहों का बहता खून आतंकियों को और हमलावर बनाता है। AK- 47 के जवाब में लाठिया लेकर दौड़ते
मुंबई पुलिस के जवान दिखते है। सैकणो क़त्ल और उसके बाद कसाब की फांसी से फिल्म ख़त्म होती
है।
अभिनय – फिल्म में दो ही अहम् किरदार है- राकेश मारिया बने नाना
पाटेकर और कसाब बने संजीव जायसवाल। संजीव जायसवाल को फिल्म में लेने की एकलौती वजह
मुझे यही समझ में आती है कि उनका चेहरा कसाब से मेल खाता है वरना वो कई दृश्यों
में खासे ओवरएक्टिंग करते नज़र आये। एक सीन जिसमे कसाब से पूछताछ होती है में संजीव
के पास अपना जौहर दिखाने की काफी गुंजाइश थी मगर वो उसी साइको की तरह नज़र आये जैसा
की हम बी सी या डी ग्रेड बॉलीवुड की फिल्मो में पहले ही देख चुके है। नाना पाटेकर ने
परिपक्व अभिनय दिखाया है मगर वो भी अपने को रिपीट करते नज़र आये। उम्र के पहले पड़ाव
में वो जैसे चीखते हुए एक्टिंग करते थे और लगभग हर फिल्म में वैसे ही रहते थे-
उम्र के इस पड़ाव में वो एक धीमे अंदाज़ में एक्टिंग करते है और लगभग हर फिल्म में
वैसे ही रहते है। फिर भी उनका अभिनय काबिले तारीफ है और कई दृश्यों में वो खासे जंचे
है। फिल्म के बाकी कलाकारों के हिस्से कोई ख़ास काम नहीं आया।
खासियत क्या है- बिना किसी शक के कहा जा
सकता है की आतंकी हमले की सच्ची तस्वीरें रामगोपाल वर्मा ने दिखाई है जो भयावह भी
है, क्रूर भी और बेहद मार्मिक भी। वैसे भी अगर आप ये फिल्म देखने की सोच रहे है तो
आप खून खराबा देखने के लिए तैयार होंगे ही। आतंक और उसके खौफ को रामू ने बेहद रियल
अंदाज़ में दिखाया है। मसलन एक सीन में आतंकी जिससे पानी मांग कर पीता है फिर उसी
को गोली मार देता है, वहीं एक और सीन में मासूम बच्चे के सर पर गोली मार दी जाती
है। ऐसे कई सारे सीन है जो आपके रौंगटे खड़े कर देंगे। राम गोपाल वर्मा कैमरे और
साउंड के अनोखे प्रयोग करने में माहिर हैं। इस फिल्म में भी रामू का ये जलवा देखने
को मिला है जो फिल्म को और प्रभावशाली बनाता है। यूँ भी आज कल रामू अपने कंटेंट से
ज्यादा टेक्नीकल चीजों पर ध्यान देने में मशहूर है।
कमी कहाँ रह गयी- फिल्म की कहानी हम सब जानते है और मानते भी है
कि उसमे छूट की गुंजाइश कम थी पर फिर भी रामू कोई नया फैक्ट, कोई नया प्रसंग या
कोई नया किरदार सामने लाने में नाकाम साबित होते है। इसके अलावा फिल्म में केवल वीटी
स्टेशन,
ताज होटल,
लियोपोल्ड कैफे और कामा हास्पिटल में हुई गोलीबारी को दिखाया गया है ऐसे में ओबराय
होटल और कोलाबा के नरीमन हाउस पर हुए हमलों को लगता है रामू भूल ही गए। रामू ने कई
सीन्स को बेहद लंबा खींच डाला है मसलन मुर्दाघर का एक सीन है जिसमे नाना और संजीव
है- इसमें नाना का प्रवचन इसे बेहद लम्बा बना देता है । पता नहीं रामू कब समझेंगे
की केवल कैमरा को अलग अलग तरीको से नचाने के अलावा और भी फिल्म के दूसरे पक्षों पर
भी उतना ही ध्यान दिए जाने की जरुरत है।
देखे की न देखे - अगर आप रामू के काम और उनकी स्टाइल को समझते
है और साथ में पसंद भी करते है तो आपको ये फिल्म भी पसंद आ सकती है लेकिन अगर आप पूरे
परिवार के साथ जा कर कामेडी, ऐक्शन और मसाला फिल्मों के मज़े
लेने वालो में से है तो दूर ही रहने में भलाई है।
No comments:
Post a Comment