Friday, March 2, 2012

पान सिंह तोमर - समीक्षा

"'देश के लिए भागे तो किसी ने नहीं पूछा, बागी हो गए तो सबही माला जपत है"' पान सिंह तोमर का ये डायलाग ही पूरी फिल्म को बयान करता है। इसमें कोई शक नहीं की अपने देश में सच्चे हीरोज़ को सम्मान देने की परंपरा नहीं है। एक ऐसा नौजवान जो फौज में इसलिए शामिल हुआ क्यूंकि उसे लगता है की केवल यहीं चोरी चकारी नहीं है..........उसे भूख ज्यादा लगती थी इसलिए ज्यादा खाने के लिए वो स्पोर्ट्स में शामिल होता है,.... दौड़ने में बेहद माहिर वो अपना मेन इवेंट इसलिए छोड़ देता है क्यूंकि उसका कोच उससे अपने स्वार्थ की वजह से ऐसा करने को कहता है........ और जब वो दौड़ता है तो नेशनल चैम्पियन बनता है... भारत के लिए पदक लाता है........सवाल ये है की वो एक दिन बंदूक उठाकर “डाकू” माफ़ कीजियेगा “बागी” क्यूँ बन जाता है। एक सच्ची कहानी पर बनी फिल्म जिसमे बेमिसाल अदाकारी है, कसी हुई पटकथा है और कमाल का निर्देशन है, साथ ही खेल है, जीत है, थोडा बहुत रोमांस है, इमोशनल ड्रामा है और साथ में ग्रे शेड्स नायक की दिल तोड़ देने वाली मौत भी। यानि ये समझने की गलती मत कीजियेगा की फिल्म कोई आर्ट फिल्म है। गंभीर मौको पर भी ऐसे चुटीले संवाद की हंसी आ ही जाएगी।

कहानी आजादी के बाद की है और पान सिंह तोमर की असल जिंदगी पर है। जिन्दगी भी ऐसी जिसमे कई रंग है- गुस्सा है, क्षोभ है, नियम कायदे भी है। कहानी इस तरह गुंथी हुई है की एक कातिल डाकू से आपको हमदर्दी हो जाएगी। चंबल के बीहड़, गांव की कच्ची ज़मीन, उसकी लाल दुश्मनी और साथ ही भारतीय खेलो की दुर्दशा- इन सब पर डायरेक्टर तिग्मांशु धूलिया ने क्या शानदार रिसर्च की और उतने ही बेहतरीन सीन भी क्रिएट किए। मेरे लिए तो फिल्म के असल हीरो वही है- देसी कहानिया देसी अंदाज़ में ही दिखाने में वो बेमिसाल है। अब इसी फिल्म को लीजिये - डाकूवों के दल में एक सज्जन हमेशां हनुमान चालीसा और रामचरित मानस पढ़ते दिखेंगे तो गालियाँ देकर जोश बढाता कोच भी। इरफान खान की एक्टिंग बेहतरीन है और इसमें नया कुछ भी नहीं है, जिन्दगी के तमाम रंग अलग अलग उम्र में कैसे दिखाए जाते है ये कोई इरफ़ान से सीखे। साथ में माहि गिल, राजेंद्र गुप्ता जैसे कलाकार भी है पर इरफ़ान पूरी फिल्म में छाये है। डायलॉग्स में चम्बल के क्षेत्रो ग्वालियर, भिंड, मुरैना की छाप साफ़ देखि जा सकती है। .

यह फिल्म डकैतों पर बनी बाकी की फिल्मो से अलग अलग है, इसमें डकैत न तो डरावना दीखता है, न ही क्रूर तरीके से ठहाके लगता है। ये फिल्म हकीकत के करीब है और हमें उन वजहों से वाकिफ कराती है, जिनकी वजह से एक एथलीट डाकू बनता है । ये आदमी यूँ तो देश की धरोहर है, देश के लिए कई पदक भी जीते है , लेकिन जब उसे मदद की सबसे ज्यादा जरूरत होती है, तब न तो देश और न ही इसका कानून उसके साथ आकर खड़ा होता है । यह फिल्म इंसान की कुंठा को बहुत खूबी से दिखाती है। फिल्म की एकमात्र दिक्कत ये है की कभी-कभी ये थोड़ी धीमी पड़ जाती है। लेकिन फिर भी ये एक मस्ट वाच फिल्म है

सवाल फिर से व्यवस्था का है- और हर बार एक ही सवाल आखिर क्यूँ ? .... आखिर क्यूँ एक शानदार एथलीट डकैत बनता है? आखिर क्यूँसमाज उसकी मदद नहीं करता? आखिर क्यूँ हम उन लोगो का सम्मान नहीं कर पाते जिन्होंने हमें गौरव दिया है? आखिर क्यूँ ये लोग इतिहास का एक हिस्सा बन कर रह जाते है..... इतिहास की सबसे बड़ी खासियत ये है की आप उसे भुला नहीं सकते क्यूंकि जब भी भुलायेंगे वो वर्तमान बनकर आपके सामने आ जायेगा

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