मई का महीना पाकिस्तान के लिए कुछ ज्यादा ही गर्म है। पूरे पाकिस्तान में चुनाव प्रचार अपने शबाब पर है। पाकिस्तान के लिए ये चुनाव बहुत अहम् है क्यूंकि इस चुनाव को पाकिस्तान के भविष्य के लिए एक “गेम
चेंजर” के तौर पर देखा जा रहा है और माना जा रहा है कि लोकतांत्रिक बदलाव के लिए ये चुनाव मील का पत्थर साबित होगा। पाकिस्तान के 66 साल
के इतिहास में ऐसा पहली बार हुआ कि लोकतांत्रिक तरीक़े से चुनी गई सरकार ने पांच साल के अपने कार्यकाल को पूरा किया हो। ऐसे में इन चुनावो की महत्वत्ता अपने आप में बढ़ जाती है। 11 मई
को होने जा रहे इन चुनावो में अवाम नेशनल और प्रांतीय एसेम्बली दोनों के लिए अपने नुमाइंदे चुनेगी।
यूँ तो किताबी परिभाषा में किसी भी चुनाव में सबसे महत्वपूर्ण होता है चुनावी मुद्दे, राजनीतिक दल और उन दलों का नेतृत्व करते नेता। लेकिन ज़मीनी हकीकत में कई बार नेता पहले आ जाता
है और मुद्दे पीछे छूट जाते है। पाकिस्तान के इन चुनावों में तीनो चीज़े आपस में गुथी हुई है। एक तरफ सत्तारूढ़ पीपीपी है जिसका सबसे बड़ा चेहरा ना नुकुर करते बिलावल और मरहूम बीवी बेनजीर की फोटो के आगे खड़े राष्ट्रपति ज़रदारी है तो दूसरी तरफ पाकिस्तानी राजनीति के दिग्गज नवाज़ शरीफ पीएमएल-एन की नुमाइंदगी कर रहे है। तीसरी ताक़त इमरान खान और उनकी तहरीक ए इंसाफ
है जो नया पाकिस्तान बनाने का वायदा कर रही है। बाकी और भी दल मसलन मुत्ताहिदा कौमी मूवमेंट,
अवामी नेशनल पार्टी, जमात-ए-इस्लामी,
जमीयत-उलेमा-इस्लाम है मगर माना जाता है की ये सारी पार्टियाँ तीनो बड़े दलों के साथ होने वाले गठबंधन का हिस्सा बनेंगी।
सबसे पहले बात सत्तारूढ़ पीपीपी की - न्यायपालिका ने राष्ट्रपति आसिफ अली जरदारी पर चुनाव प्रचार करने से रोक लगा रखी है तो ऐसे में पार्टी की सबसे बड़ी उम्मीद उनके बेटे बिलावल
ही हैं। लेकिन चुनाव प्रचार के दौरान ही खबर ये आई कि ज़रदारी को बिलावल और पाकिस्तान
की पूर्व विदेश मंत्री हिना रब्बानी खार की नजदीकिया पसंद नहीं आ रही
है। मतभेद इस कदर बढ़ गए कि बिलावल पाकिस्तान छोड़ कर चले गए थे। वैसे भी बिलावल ने कोई बड़ी चुनावी रैलियां नहीं की और उन्हें सिर्फ टीवी और अखबारों के विज्ञापन में दिवंगत मां बेनजीर भुट्टो की तस्वीरो के साथ ही देखा जा सकता है। पीपीपी 2008 से
2013 तक पाकिस्तान में किये गए अपने कामो पर वोट मांग रही है जो उसने सत्ता में रहते हुए आम जनता के लिए किये थे लेकिन लगता नहीं है की इससे कोई ज्यादा मदद मिलेगी। पीपीपी पर खराब तरीके से सरकार चलाने के अलावा भ्रष्टाचार के तमाम आरोप हैं। इसके अलावा तालिबानी धमकियो के चलते पार्टी ने कोई खास चुनाव प्रचार भी नहीं किया है। कुल मिलकर पीपीपी की हालत काफी कमज़ोर मानी जा रही है।
विशेषज्ञ
सबसे ज्यादा सम्भावनाये पीएमएल-एन की देख रहे है। पीएमएल-नून के सबसे बड़े नेता नवाज शरीफ और उनके भाई शाहबाज़ शरीफ है। पीएमएल-नून 1990 के
दशक की अपनी उपलब्धियों का और पीपीपी गठबंधन के कमजोर प्रशासन का जिक्र अपने हर प्रचार में कर रही हैं। इस पार्टी का गढ़ है पंजाब जो पाकिस्तान में राजनीति से लेकर हर चीज़ में सबसे बड़ी ताक़त है। माना जा रहा है नवाज़ शरीफ को एंटी इन्कम्बैंसी फैक्टर का फायदा हो सकता है और वो अगले प्रधानमंत्री बन सकते है। वैसे उन्हें इस बार अपनी बेटी मरियम नवाज़ का भी साथ मिला है जिन्होंने अपने पिता के चुनावी क्षेत्र में प्रचार की ज़िम्मेदारी ख़ुद उठा ली है, काफी हद तक प्रियंका गाँधी की तरह जो रायबरेली में सोनिया का प्रचार देखती है।
जहाँ तक बात इमरान खान और उनकी तहरीक ए इंसाफ
की किया जाए तो भ्रष्टाचार को खत्म करने के उनके वायदे युवाओं और शहरी क्षेत्र के मतदाताओ में असर कर रहे है। इमरान खान का पूरा प्रचार अभियान ‘नया
पाकिस्तान’ बनाने
को लेकर है, साफ़ है कि उनके निशाने पर नया पाकिस्तान यानी नौजवान मतदाता है। यूँ तो इमरान की खुद की काफी प्रतिष्ठा है लेकिन वह बहुमत की दौड़ में पीछे ही नज़र आते है। जानकारों के मुताबिक तहरीक ए इंसाफ
चुनाव परिणामो में सबसे ज्यादा असर डालने वाले पंजाब और सिंध में कमजोर है।
बड़ा झटका तो परवेज मुशर्रफ को लगा है। मुशर्रफ की चुनाव लड़ने की योजना को इलेक्शन ट्राइब्यूनल ने ख़त्म कर दिया। ट्राइब्यूनल ने कराची, चितराल, इस्लामाबाद और कसूर संसदीय क्षेत्रों से मुशर्रफ की उम्मीदवारी खारिज कर दी है। फिलहाल मुशर्रफ
घर में नज़रबंद है और सोच रहे होंगे की वो पाकिस्तान वापस ही क्यूँ लौटे।
अब बात मुद्दों की - इन चुनावो के पांच बड़े मुद्दे भ्रष्टाचार,
स्थानीय दहशतगर्दी,
लोड शेडिंग यानि बिजली की क़िल्लत,
शिक्षा और अमेरिकी साए से पाकिस्तान को अलग करना है। एक
दीगर बात ये है कि भले ही भारत पाकिस्तान के बीच विवाद का मुख्य मुद्दा कश्मीर हो लेकिन 11 मई
को होने जा रहे चुनाव के लिए प्रचार के दौरान कश्मीर मुद्दे का जिक्र बिल्कुल नहीं के बराबर हो रहा है। यहाँ तक की सालो से पाकिस्तानी अवाम को डराने वाले “हिन्दुस्तानी
खतरे” को लेकर भी कोई ख़ास प्रचार नहीं है। मुद्दे ज़्यादातर आम जन सुविधाओ से जुड़े ही है और ये बदलाव पाकिस्तानी जम्हूरियत के लिए एक ऐतिहासिक कदम है।
ऐसा नहीं है कि इन चुनावो में सब कुछ ठीक ठाक जा रहा हो। चुनाव प्रचार पर भी दहशत गर्दी का साया बना हुआ है। प्रतिबंधित पाकिस्तानी तालिबान ने पिछली सरकार का हिस्सा रहीं पीपीपी, एमक्यूएम और एएनपी की रैलियां और उनके नेताओं को निशाना बनाने की धमकी दी है जिसका असर इन दलों के प्रचार पर साफ नजर आ रहा
है। तालिबानियों का उद्देश्य चुनाव भंग करना और पाकिस्तान को लोकतन्त्र और धर्मनिरपेक्षता की राह पर आगे बढ़ने से रोकना है। सिंध, खैबर पख्तूनख्वा,
बलूचिस्तान, पेशावर, कराची
में हुए बम धमाको और खुद्कुश हमलावरों के चलते रैलियो और पार्टी दफ्तरों में अब तक करीब सौ से भी ज्यादा लोगो की जान जा चुकी है और सैकणों घायल है। पाकिस्तानी तालिबानियों ने कई सारे इलाकों में इस तरह के परचे छपवाकर बाँटे है जिसमे आम जनता से कहा गया है कि वे मतदान करने के लिए नहीं जाएँ, नहीं तो उनकी जान को ख़तरा है। वही पाकिस्तान के अल्पसंख्यक अहमदिया समुदाय ने उपेक्षा का आरोप लगाते हुए घोषणा की है कि वह 11 मई को होने वाले आम चुनाव का बहिष्कार करेगा। कुछ कुछ ऐसे ही एलान बलोच संघटनो ने भी किया है।
जहाँ तक संभावित परिणामो के बारे में विशेषज्ञों का अनुमान है, माना जा रहा है कि किसी भी पार्टी को बहुमत नहीं मिलेगा और एक बार फिर गठबंधन सरकार बन सकती है। वहीं, पूर्व पीएम नवाज शरीफ की पार्टी पीएमएल (एन) सबसे बड़े दल के तौर पर सामने आ सकती
है। खैर परिणाम जो भी हो, पाकिस्तान में होने वाले चुनाव, चुनाव प्रचार के तरीके और उसमे उठाये गए मुद्दे एक बेहतर लोकतांत्रिक बदलाव का संकेत दे रहे है जिसकी अपेक्षा पाकिस्तान से भारत समेत सारा विश्व कर रहा है।
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